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गत-आगत साल ‘बरवै’ छंद मे [अवधी की अरघान(महक)]

पार हुयी नहिं आसों, बीता साल          

बिटिया अबहूँ क्वांरी. माँ बेहाल  

      

विदा भई जनु बिटिया बीता साल

जैसे–तैसे कटिगा   जिव जंजाल

 

बेसह न पायो कम्बर बीता साल

जाड़ु सेराई कैसे   नटवरलाल ?

 

मिली न रोजी-रोटी, बेटवा पस्त

गए साल का अंतिम सूरज अस्त

 

बारह माह तपस्या, जमे न पाँव

आखिर में मुँह मोड़ा हारा दाँव

 

शीतल, सुरभित, नूतन आया साल

बधू चांद सी आयी जनु ससुराल

 

महलन माँ उजयरिया अभिनव वर्ष

ठिठुरा गाँव मनावै   कैसे हर्ष?

 

रहि-रहि सिसकै लकड़ी कांपैं आग

नए साल से के धौं   होवै राग

बनति-बनति बनि जाई बिगरे हाल

बहिन अबै है बाकी     पूरा साल                              

 

(मौलिक /अप्रकाशित)

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Comment by Ajay Tiwari on January 1, 2018 at 10:18am

आदरणीय गोपाल नारायण जी,

इन छंदों के लिए विशेषण के तौर पर सिर्फ 'अतीव सुन्दर' ही सूझ रहा है. हार्दिक बधाई.

नव वर्ष मंगलमय हो! 

सादर  

Comment by Mohammed Arif on December 31, 2017 at 7:35am

आदरणीय गोपाल नारायण जी आदाब,

                                 सुंदर अहसासों सुसज्जित बेहतरीन रचना । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sushil Sarna on December 30, 2017 at 9:33pm

आदरणीय डॉ गोपाल जी सादर प्रणाम। ... आपकी ये प्रस्तुति इतनी सुंदर, मीठे अहसासों की गंध लिए है कि मैं निशब्द हूँ कुछ कहने के लिए। इस दिल को छूती अंतस को स्पर्श करती प्रतिम प्रस्तुति के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई स्वीकार करें। साथ ही नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनयें भी स्वीकार करें। आपको नूतन वर्ष अभिनंदन स्वीकार हो। सादर ...

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