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अजीब सी कशमकश में गुजर रहे थे हरी बाबू पिछले एक हफ्ते से, एक तरफ उनके खुद के विचार तो दूसरी तरफ एक छोटी सी चीज पर उनकी असहमति| बेटी अर्पिता पिछले दो साल से नौकरी में थी और उन्होंने कह रखा था कि या तो खुद ही शादी कर लो या जहाँ मन हो बता देना, शादी कर देंगे| लेकिन अपने उदार सोच और प्रगतिशील विचारों के बावजूद एक छोटी सी बात वह चाह कर भी किसी से नहीं कह पाए थे|
वैसे तो उनके सभी मज़हब और जातियों के दोस्त थे और उन्होंने कभी उनमें फ़र्क़ भी नहीं किया| लेकिन पिछले कई वर्षों से धर्म के आधार पर हो रहे तमाम बहसों और घटनाओं ने उनके मन के किसी कोने में एक मज़हब के खिलाफ एक चिढ़ सी भर दी थी| लेकिन इस बात को वह न तो खुल के कह पा रहे थे और न हीं इसे जज़्ब कर पा रहे थे|
पिछले हफ्ते जब अर्पिता ने उनको कहा कि अब वह शादी के लिए सोच रही है तो उनका पहला सवाल यही था कि उसने किसे पसंद किया है| और लड़के का नाम सुनकर उनको एक जोर का झटका लगा और उस समय कुछ प्रतिक्रिया देते नहीं बना|
हरी बाबू उस दिन से रोज अपने आप को अपने विचारों के हिसाब से मथते| एक तरफ तो उनकी अपनी सोच और दूसरी तरफ अर्पिता की ख़ुशी| इसी जद्दोजहद में पिछले कुछ दिन बीते थे और आज जब अर्पिता ने उनसे यह कहा कि "अगर आपको मंजूर नहीं है तो जाने दीजिये, आपकी इच्छा से बढ़कर मेरे लिए कुछ भी नहीं है", तो उनको अपनी संकीर्णता का एहसास हुआ| जब बेटी उनके लिए अपना प्यार क़ुर्बान करने को तैयार है तो वह ऐसी सोच के क्यों गुलाम हैं|
उन्होंने अर्पिता को सीने से लगा लिया और भरे गले से बोले "कल मिलता हूँ अपने दामाद से, आखिर देखूं तो सही किस हीरे को बेटी ने पसंद किया है"|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on December 26, 2017 at 2:02pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय मोहतरमा नीलम उपाध्याय जी

Comment by विनय कुमार on December 26, 2017 at 2:01pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय मोहतरम समर कबीर साहब

Comment by Neelam Upadhyaya on December 22, 2017 at 4:57pm

आदरणीय कुमार जी, अच्छी लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on December 21, 2017 at 3:24pm

जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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