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चिलबिल और कैमर

तेज़ अंधड़ के साथ खिड़कियों से पत्ते ,कीट-पतंगे और धूल कम्पार्टमेंट में घुस आई |जैसे ही हवा शांत हुई ट्रेन ने चलने का हार्न दिया |सीट पर आए पत्तों को साफ़ करने के लिए उन्होंने ज्यों ही हाथ बढ़ाया उनकी आँखे चमक उठी |हाँ ये वही वस्तु थी जिससे इर्द-गिर्द उनके बचपन का ग्रामीण जीवन पल्लवित-पोषित हुआ था |हृदयाकृति के बीचों-बीच जीवन का गर्भ यानि चिलबिल का बीज |

कुछ समय तक वो उस सुनहले बीज को निहारते रहे फिर उन्होंने उसे आहिस्ते से अपने कुर्ते की उपरी जेब में रख लिया |इस बात से बेपरवाह की कुछ सहयात्री उनकी इस हरकत को हैरानी से देख रहे हैं |सामने वाले यात्री को देखकर वो मस्कुरा के बोले –चिलबिल |

पर थोड़े ही समय बाद वो अपनी हरकत से झल्ला उठे और उस बीज को हथेली पर उठाया और हाथ खिड़की की तरफ बढ़ा दिया |पल भर में ही बीज हवा के साथ उड़ गया |

“तेरी किस्मत, तेरा जीवन तेरी मिट्टी,”बस इतना कहा उन्होंने और उनकी आँखे छलक आई|

“आई विल बेटर स्टे एट माई चाइल्डहुड विलेज दैन दिस हैल “अमेरिका में बसने जा रहे बेटे ने जब अपने कर्तव्यों की इतिश्री करने हेतू उन्हें ओल्डएज होम में भेजने की कोशिश की तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया |

तुम्हारे अमेरिका में बूढ़े माँ-बाप को कबाड़ समझा जाता होगा पर हिन्दुस्थान के गाँवों में अब भी श्रवणकुमार हैं और खून का सम्बन्ध एक पीढ़ी का नहीं कई पीढ़ियों तक निभाया जाता है |

बट,आप रहोगे किसके पास ?यूँ अकेले !

डोन्ट वरी सन ,वहाँ मेरे कजन ब्रदर का परिवार है |वहीं पर तो टिकता हूँ हरबार |और हमारी सारी ग्रामीण पुश्तैनी जमीन भी तो वही बो-काट रहे हैं |क्या इतने बड़े त्याग के बदले वो इस बूढ़े को दो जून की रोटी और छत का आसरा भी नहीं देंगे !

देख लीजिए डैडी ,एक-दो दिन का मेहमान वो भी जो अपने खाने के खर्च से ज़्यादा गिफ्ट दे जाए सिर-आँखों पर बिठाया जाता है पर ऐसा मेहमान जो टिकने के लिए आए आँखों की किरकिरी हो जाता है |

तुम अपनी ये अमेरिकन सोच अपने साथ रखों ,मुझे अपनी संस्कृति और अपनी मिट्टी पर पूरा भरोसा है |

ठीक है डैडी,पर अगर आप चाहें तो मैं हर महीने आपको जेबखर्च भेजता रहूँगा और जब कभी आप चाहें इस ओल्डएज होम में आ जाना |

मुझे तुम्हारे अहसानों की आवश्यकता नहीं - - -अगर जरूरत पड़ी तो गाँव में ही एक कोटेज बना लूँगा - - - -जमीन तो मेरी भी है और वहाँ अपने तो हैं |

अतिथि देवो भव :,ललन भईया पूरे पांच साल बाद - - -साधुराम ने उठकर पाँव स्पर्श करते हुए पूछा |

बहुत बढ़िया किए .अच्छे स्वास्थ्य के लिए हवा-पानी बदलते रहना चाहिए - - - -वापसी का टिकट तो नहीं बनवाए होंगे - - - एक महीने से पहले आप को जाने नहीं देंगे

“रघु वे सारा समान अपनी अम्मा को दे दे ,कह देना अपने हिसाब से सबको दे देवेंगी |- - - - -और सुन साधुराम हम महेमानी कराने नहीं आए हैं |अब यहीं रहेंगे तुम लोगों के साथ |”

ठायं गोली की आवाज़ से चौककर ललन ने प्रश्न किया- ये कैसी आवाज़ है |

कुछ नहीं मुरली ने कैमर मारी है |बैन है |बहुत स्वादिष्ट होती है |मुर्गा भी फ़ेल |

“पर ये तो बाहर से आती हैं ना !एक तरह से तो ये मेहमान हुई |फिर तुम ही तो कहते हो-अतिथि देवों भव : “

“भईया मेहमान वही अच्छा लगता है जो एक-दू रोज़ रुके और फिर अपनी राह चलता बने |जो कपार पे आके सवार हो जाए वो अनचाहा अतिथि है |और इ ससुर चिरिया ताल की मछरी ही अधिया देती हैं |अगर इन्हें ना मारे तो ना तो हमारे पछी पनपेंगे ना मछली बचेगी |अब छोड़िये ये सब बात - - - आप थके होंगे -- - हाथ मुँह धोईए - - चाय नाश्ता आता ही होगा |जा चवन्नी ! जरा हाथकल चला दे ,बड़का दादा हाथ-पाँव धो लें |” साधुराम ने अपनी पोती को पुकारते हुए कहा

कुछ सोचते हुए वे खड़े हुए और बोलते-बोलते रुक गए |

“अरे चवन्नी ,ये कल के पास एक चिलबिल का पेड़ था ना |”

“हाँ दादीजी ,ये जो पखाना बना है वहीं पर था |” उसने मासूमियत से उत्तर दिया

“साधू ,चिलबिल कटवा दिए |” चाय का घूंट भरते हुए कुछ सोचते हुए ललन ने  पूछा 

“अब भईया आज की पीढ़ी हमारी-आप की तरह नहीं ना है| इन्हें तो सब प्रबंध घर पर चाहिए |बहू की चलती तो घर में ही अग्रेज़ी सीट लगवा देती |बहुत समझाने पर बाहर के लिए राजी हुई |हम भी सोचे की जमाने के साथ चलें वैसे भी इस बुढ़ापे में हम भी कहाँ हाथ में लोटा लिए झाड़ी खोजते |अब पैखाना हो गया तो आप को भी तो मुंशी के घर नहीं जाना होगा |”

“ये तो ठीक कहा तुमने |” चाय का कप रखते हुए धीमे से बोले

“प्रणाम दादा |” एक हाथ में कट्टा लिए तथा दूसरे में दो चिड़ियाँ लटकाएं सुधाकर ने कुछ दूरी से ही कहा और फिर आवाज़ लगाई |चवन्नी ,ज़रा दउरा लाके कैमूर ढांक दे तो |

फिर हाथ मुँह धोकर सुधाकर उनके पाँव छूते हुए बोला –“एकदम किस्मत से आए हो दादा |इस चिड़िया की बहुत माँग है |सब चोरी से मारते हैं और खाने के शौकीन लोग दो दो हज़ार में एक चिड़िया ले जाते हैं |पूरी सरदी गाँव में किसी ना किसी के घर पाहून आता है वो भी सिर्फ चिड़िया खाने |”

“नहीं बेटा ,मेरी इच्छा नहीं है तुम लोग खाओ |”

“क्यों भईया ?कंठी ले लिए क्या !” साधुराम ने पूछा

“नहीं |बस इच्छा नहीं है |”

“कोई नहीं दादा ,जैसी आपकी इच्छा,चवन्नी की अम्मा की तरह आप भी पलकी-बथुआ खाईये और विटामिन-आयरन लीजिए |” कुछ खिन्नता के साथ रघु बोला और भीतर चला गया

_________________________________________________________________________________

एक सप्ताह बाद

“दादा,देसी-मुर्गा के बारे में क्या विचार है ? “ सुधाकर ने उनकी तरफ देखते हुए कहा

“विचार क्या है ! अगर बच्चों का मन है तो बन जाए,हमारी तरफ से |वैसे भी दिल्ली में देसी तो बस दारू मिलती है |बाकी सब तो मिलावटी  |

तो दादा साथ में देसी चलेगा या विलायती |” सुधाकर ने शरारत से उनकी तरफ देखा

“ये पागल !बड़का पापा को छेड़ता है |पता है ना वो दिल्लीवाले हैं और तेरा भईया विलायती |इन्हें तो रायल स्टेग से नीचे उतरेगी भी नहीं |”साधूराम पान से काले पड़ चुके दांत दिखाते हुए बोलते हैं

शाम का वक्त ललन छुपते हुए सूर्य की छाया पानी में देख रहे थे |आसपास कैमर,हँस,पनकोऔं,बगुलों का मिश्रित गीत कानों में रस घोल रहा था |विज्ञान ने कैसे-कैसे वाद्य-यंत्र विकसित कर दिए हैं |एक से बढ़कर एक संगीत की रचना |एक से बढ़कर एक एप्स |छोटी सी चिप में समाई हुई अनंत यादें |जब से अनूप अमेरिका गया है बस एक बार उसका फ़ोन आया है |हाँ,सोशल-साईट पे उसका अपडेट जरुर आ जाता है और वे ये जानकर संतोष कर लेते हैं कि बेटा खुश है |

ठाs य ,ठाsय की आवाज से उनका विचार भंग हुआ |गीत की लय बिगड़ गई और उसके स्थान पर था-कोलाहल ,भय और अस्त-व्यस्तता |ऐसा लगा जैसे की कैसट रिकार्डर की गति को नहीं संभाल पाई और रील खुलकर आपस में गुथम-गुथा करने पर उतारूँ हो |सूर्य अस्त हो चुका था शेष थी तो कालिमा |पानी का ऐसा रंग जैसे सूखा खून |

“ये चवन्नी ज़रा मुर्गा धुला तो ! ए रघु जा भैंस घर की कोठरी से गोइठी और चिलबिल की सूखी डाड़ी ले आ |”

रात के वक्त

लीजिए दादा नमक चखिए और बताईये कोई कमी तो नहीं |

अभी उन्होंने प्लेट उठाई ही थी कि

“नमस्कार ,आल इण्डिया रेडियो का ये दिल्ली केंद्र है |प्रस्तुत है मुख्य खबरें - - - - -अमेरिका के टेक्सास शहर में एक व्यक्ति ने छब्बीस लोगों को गोलियों से भुना |”

उन्होंने जल्दी से अपना फ़ोन उठाया और निलेश का नम्बर मिलाने लगे |अंजान आशंकाओं से उनका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा |तीन-चार घंटी बाद निलेश ने कॉल-बैक किया |

“डैडी अभी दफ्तर में हूँ |बाद में कॉल करता हूँ |”

उनकी जान में जान आई |

“सुधाकर,जा बेटा दवा ले आ |”

“सब ठीक है ना भईया |” साधू ने उनके कंधे पर हाथ धरते हुए पूछा और उन्होंने सहमति में सिर हिला दिया |

“कलेजा मजबूत रखो भईया |जब भैया वहीं घोंसला बना लिए हैं तो सोचने से क्या लाभ !” साधुराम ने झूमते हुए कहा

“साधु,तुम्हें याद है बचपन में हम उस चिलबिल के नीचे घंटो खेलते थे और जब हवा से टूटकर चिलबिल उड़ा करती तो कैसे उसे भाग-भागकर पकड़ते थे - - - दाँव लगाते कि कौन जमीन पर गिरने से पहले ज़्यादा चिलबिल पकड़ेगा और याद है ना तुम्हें रात में जुगनू का पकड़ना |” नशा और अहसास उनके मुख से कविता की तरह फूट रहे थे

“हाँ,पर क्या करें भईया,जरूरत थी तो कटवा दिए वरना चिलबिल पर कितनी ही तरह की चिड़ियाँ घोंसला बनाए रहती थी और तो और जाड़ा में साइबेरियन चिड़िया भी आ बैठती थी |तब इतनी दूर ना जाना पड़ता था |पर जरूरत ­- - -“

"सही कह रहे हो - - - - -जिसका जहाँ का दाना पानी  वहीं नसीब ले जाता  है - - - -अच्छा ये साइबेरियन चिड़िया तो गरमी में लौट जाती होगी |"

'नहीं बड़का पापा इस गर्मी में तो तीन-चार कैमूर यही रुक गए थे  | लीजिए और पीस लीजिए ` " सुधाकर ने कहा 

“दादा देखिए जहाज |" पास बैठी चवन्नी चहकते हुए बोली 

"जहाज नहीं जुगनू "नशे में मुग्ध ललन ने कहा 

"वैसे भईया,चिरई कैसी बनी है |" झूमते हुए साधुराम ने पूछा 

तब तक पूरी बोतल समाप्त हो चुकी थी |

“यू - - - - - - -कुत्ता - - - -स्पॉइलड मी - - -माई फीलिंग |

अगले दिल उन्होंने दिल्ली लौटने की ट्रेन पकड़ ली |

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )

रचना तिथि -12/09/17

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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Comment by Samar kabeer on December 11, 2017 at 2:14pm

जनाब सोमेश कुमार जी आदाब,इस भवपूर्ण प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

Comment by somesh kumar on December 10, 2017 at 3:30pm

 Sheikh Shahzad Usmani भाई जी

रचना पर विशद दृष्टी डालने एवं उसमें व्याप्त जीवन-तत्वों को पहचानने के लिए शुक्रिया | रचना को जिस गहनता से आप  पड़ताल करते हैं उससे आपका विशद व्यक्तित्व  और ज्ञानपूर्णता का बोध होता है |अगर रचना में कोई दोष,कमी नजर आए तो उसे भी इंगित करें ताकि सुधार किया जा सके और आपका ये अनुज आपकी गहनता का कुछ अंश प्राप्त कर पाए|

क्षमाप्रार्थी  हूँ कि अपनी व्यस्तताओं के चलते मंच पर बहुत कम रहता हूँ और मंच पर आने वाली गहन अर्थपूर्ण रचनाओं और साथियों से यदा-कदा ही साक्षात्कार हो पाता है |फिर भी मंच पर अब तक जो स्नेह एवं आशीर्वाद मिला है वही मेरी प्ररेणा स्त्रोत है |

मंच के साथियों का स्नेह एवं गुरुजनों का आशीष बना रहे बस यही आशा है |

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 10, 2017 at 9:45am

हार्दिक आभार सहित ढेर सारी बधाइयां और शुभकामनाएं आदरणीय सोमेश कुमार जी। परत - दर- परत खोलती इस तरह की बेहद भावपूर्ण, विचारोत्तेजक और प्रभावोत्पादक तीखी रचनाओं से आप पाठकों के आंसू नहीं रोक सकते। अपने वतन, अपनी ज़मीन, और अपने शुद्ध ग्रामीण पर्यावरण और परिवेश और उन अपनों  से प्रेम करने वाले 'ललन'/'लल्लन' जैसे भारतीय के जज़्बात और विपरीत परिवर्तित परिस्थितियों से रूबरू होना आपने बाख़ूबी शाब्दिक किया है। बदलती हवाओं ने हमारे गांवों और गांववासियों को भी काफी बदल कर रख दिया है। एक साथ सब कुछ समेट लेते हैं आप प्रवाहमय भावपूर्ण रचना में, यह आपके लेखन शैली की विशेषता है। आप कहानीकार और उपन्यासकार भी हैं, तो एक बेहतरीन लघुकथाकार की लेखनी भी है आपके पास, क्योंकि सूक्ष्म से सूक्ष्म पल भर की विसंगति पर आपकी पैनी नज़र और पकड़ आपकी इन रचनाओं में दिखाई देती है। तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी। 'चिलबिल' के साथ मेरी तरह सभी पाठकों के अनुभव भी जुड़े हुए हैं। 

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