२१२२/२१२२/२१२२/२१२
बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना
बस्तियाँ जलती रहेंगी, तुम तमाशा देखना.
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छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.
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देखने से गो नहीं मक़्सूद जिस बेचैनी का
हर कोई कहता है फिर भी उस को “रस्ता देखना”
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क़ामयाबी दे अगर तो ये भी मुझ को दे शुऊ’र
किस तरह दिल-आइने में अक्स ख़ुद का देखना.
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चाँद में महबूब की सूरत नज़र आती नहीं
जब से आधे चाँद में आया है कासा देखना.
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तीरगी फिर कर रही है घेरने की कोशिशें,
“नूर” है तेरा इसे तू ही ख़ुदाया देखना.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सतविन्द्र जी
आ. सुरेन्द्रनाथ जी,
आभार
आ. मनन जी,
अपने पूर्व कमेंट को पढ़िये..... जज कि बात कौन कर रहा है ..जान जाइएगा
सादर
आ. मनन जी,
ग़ज़ल कहता हूँ तो इशारों में बात कहता हूँ.... इशारे समझता भी ख़ूब हूँ ....
जज की सोच पर अगर एक ऊँगली उठी है तो आरोपी पर तीन उठी हैं ..
वैसे अदब में अदालत आनी ही नहीं चाहिए लेकिन ....बहुत से मुहावरे हैं इस मौजूं पर ...
जाने दीजिये
.
सादर
आ. मंच..
आम तौर पर मैं टिप्पणियाँ डिलीट नहीं करता लेकिन आ. मनन जी की टिप्पणी मंच की गरिमा में अनुरूप नहीं थी इसलिए मैंने यहाँ से हटा दी है ..
उम्मीद है कि वो भविष्य में कम से कम अदबी मंच की गरिमा का ख़याल रखेंगे ...
सादर
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