ग़ज़ल
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(फऊलन-फऊलन -फऊलन -फऊलन )
लगी को बुझाने को जी चाहता है |
तुम्हें कब से पाने को जी चाहता है |
यक़ीनन बड़ी मुज़त् रिब है शबे ग़म
मगर मुस्कराने को जी चाहता है |
समुंदर से गहरी हैं आँखें तुम्हारी
यहीं डूब जाने को जी चाहता है |
तेरे नाम में भी बहुत है हलावत
इसे लब पे लाने को जी चाहता है |
तेरे अहदे माज़ी से वाक़िफ़ हैं फिर भी
नयी चोट खाने को जी चाहता है |
मुसलसल मेरा इम्तहाँ लेने वाले
तुझे आज़माने को जी चाहता है |
मुझे याद तस्दीक़ आते हैं जब वो
ग़ज़ल गुनगुनाने को जी चाहता है |
मुज़त्रिब-----बेक़रार
हलावत------मिठास
माज़ी ---गुज़रा हुआ
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आ. तस्दीक़ अहमद साहब
एक सादा फिर भी ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई
सादर
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