२१२२/११२२/२२ (११२)
रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
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मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
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मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
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इक सितमगर जो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
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“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है.
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निलेश"नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
मुहतरम जनाब नीलेश साहिब ; अच्छी ग़ज़ल हुई है , दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ
शेर 4 के सानी मिसरे को यूँ भी कर सकते हैं ---'' खल्क़ कब एसा खुदा चाहती है ''
शेर 5के सानी मिसरे से बात साफ़ नहीं हो पाई , क्या की जगह यह का इस्तेमाल
ज़्यादा सही लग रहा है '' यह ही नादान हवा चाहती है ''-------सादर
शुक्रिया शिज्जू भाई
या यूँ
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इक सितमगर जो मसीहा सा लगे,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
या यूँ देखिये
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हो सितमगर जो मसीहा सा लगे,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
आ. समर सर..
तरमीम यूँ है ..
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जो सितमगर हो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.... आप अनुमोदित करें तो बदलाव करूँ
सादर
शुक्रिया आ. समर सर... तरमीम के साथ हाज़िर होता हूँ ...
आभार
शुक्रिया आ. समर सर... तरमीम के साथ हाज़िर होता हूँ ...
आभार
शुक्रिया आ. नरेन्द्रसिंह जी
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