बस चला जा रहा हूँ ...
मैं
समय के हाथ पर
चलता हुआ
गहन और निस्पंद एकांत में
तुम्हारे संकेत को
हृदय की
गहन कंदराओं में
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
मधुरतम क्षणों का आभास
स्वयं का
अबोले संकेत में
विलय का विशवास
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
वाह्य जगत के
कल ,आज और कल के
भेद से अनभिज्ञ
अंतर चक्षुओं के कोरों पर
ठहरे हुए
तुम्हारे संकेत के
प्रतिबम्ब को
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
समय के हाथ पर
दो छोर
सफलता और असफलता
सदा जीवित रहते हैं
मगर किस और
कोई नहीं जानता ?
मैं
जीत-हार
सुख-दुःख
आदि-अंत के भय से
वाह्य चक्षुओं को बंद कर
स्वयं को
इन मिथ्याओं से मुक्त करता
तुम्हारे श्वासों की गंध
तुम्हारी कुंतल लटों की
कपोलों से होती
वार्ता की ध्वनि को
लक्ष्य मान
अपनी आकांक्षाओं के अंकुर
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
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