१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
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हमारा साग बांसी है तुम्हारी भाजी ताजी है
जो इस में ऐब ढूँढेगा तो वो आतंकवादी है.
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गजल के पाँव दाबे हैं तभी कुछ सीख पाये हैं
इसे पाखण्ड कहना आप की जर्रानवाजी है.
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तलफ्फुज को लगाओ आग, है ये कौन सी चिड़िया
हमारा राग अपना है हमारी अपनी ढपली है.
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बहर पर क्यूँ कहर ढायें लिखे वो ही जो मन भाये
मगर इतना समझ लें, ये अदब से बेईमानी है.
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शहर भर का जहर पीने के आदी हो चुके हैं हम
समझ लीजै यही हम जैसों की एरिस्टोक्रेसी है.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. समर सर
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