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ग़ज़ल -तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं - ( गिरिराज )

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छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं

फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं

 

मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये  

सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं

 

आइनों से जो भी नफ़रत करते थे   

जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं

 

बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा

इंसाँ  दीमक जैसे अन्दर निकले हैं

 

अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्

जब नापे तो सारे सागर निकले हैं

 

औंधे पड़े हुये हैं सागर से दावे

कुछ नाले, तो बाक़ी गागर निकले हैं

 

क्या सांपों के बिल में पानी चला गया  ?

तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं

 

आवाज़ तभी होती है जब उथला पन हो

चुप्पी से ही सभी समन्दर निकलें हैं

**************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 3:36pm

आदरणीय मोहित भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से अभार ।

Comment by Mohammed Arif on March 21, 2017 at 1:23pm
आदरणीय गिरिराज जी आदाब, बहुत बेहतरीन अशआर । शेर दर शेर मुबारक़बाद ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 21, 2017 at 12:48pm

आदरणीय गिरिराज भाई साब एक से बढ़कर एक अशार हुए हैं 

क्या सांपों के बिल में पानी चला गया  ?

तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं..इस शेर के लिए बिशेष रूप से बधायी है 

Comment by Sushil Sarna on March 21, 2017 at 11:53am

मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये
सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं
वाह आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं आपने। ... इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by Ravi Shukla on March 21, 2017 at 11:52am

आदरणीय गिरिराज भाई जी बहुत सुन्‍दर अशआर कहे है आपने गजल में दिली बधाई स्‍वीकार करें । सादर

Comment by Gurpreet Singh jammu on March 21, 2017 at 11:11am

औंधे पड़े हुये हैं सागर से दावे

कुछ नाले, तो बाक़ी गागर निकले हैं

वाह वाह आदरणीय गिरिराज जी,, बहुत शानदार ग़ज़ल 

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