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ग़ज़ल....अब कहाँ गुम हुये आसरे भीड़ में

212 212 212 212
अब कहाँ गुम हुये आसरे भीड़ में
चलते चलते कदम रुक गये भीड़ में

मुख़्तलिफ़ दर्द में हम पुकारा किये
घुट गयी आह थे कहकहे भीड़ में

बाँह को थामकर हमने रोका बहुत
तुम गये भीड़ में खो गये भीड़ में

है सभी का मुकददर परेशानियाँ
दे किसे कौन अब मशविरे भीड़ में

मुंतज़िर हैं बड़े दिल ए नाशाद के
अनकहे प्यार के फलसफे भीड़ में

दिल के ज़ज्बात 'ब्रज' रायगाँ मत करो
फिर रहे हैं कई मसखरे भीड़ में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 23, 2017 at 5:11pm
उचित है अदरणीय गिरिराज जी..आपकी सलाह सर्वथा उचित है..अदरणीय शुक्ला जी की सलाह के बाद मैं कुछ बदलाव सोच ही रहा था.. आपका सुझाव बेहद खूबसूरत है..सादर प्रणाम

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 9:25am

आदरनीय बृजेश भाई , अच्छी गज़ल कही है आपने , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें । मेरा सोचना है कि .. अगर हम सहीं भी हों और कोई बेहतर सलाह आये तो भी स्वीकार कर लेना चाहिये .... चाहें तो उस मिसरे को ऐसे कह सकते हैं

दे किसे कौन अब मशविरे भीड़ में

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 22, 2017 at 8:46am
आदरणीय रवि शुक्ला जी रचना की सार्थक समीक्षा हेतु आपका हार्दिक आभार..जहाँ तक मेरी जानकारी है मशविरा मतलब सलाह है जो आपस में भी की जाती है और दूसरों को भी दी जाती है..इसलिए कौन किसको कहे मश्विरे भीड़ में.. मैं गलत भी हो सकता हूँ..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 22, 2017 at 8:14am
आदरणीय आरिफ जी रचना पटल पे आपका हार्दिक स्वागत है..उर्दू शब्दों में थोड़ी समस्या है अभी..अशुद्धियों को दूर करने का प्रयास किया है..सादर
Comment by Ravi Shukla on March 21, 2017 at 12:06pm

आदरणीय ब्रजेश कुमार जी अच्‍छी गजल कही है आपने बधाई स्‍वीकार करें

चौथे शेर में मशविरे के साथ आपने कहे लफ्ज का प्रयोग किया है । मश्‍विरा किया जाता है आपस मे शायद । अगर ये सही है तो शेर मे थोड़ी सी तराश की जरूरत हो सकती है । सादर

Comment by Mohammed Arif on March 20, 2017 at 1:44pm
आदरणीय बृजेन्द्र कुमार जी आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल । शेर दर शेर दाद के साथ मुबारक़बाद । कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ है ।

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