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भँवरे कलियाँ तरु झूम उठें जब फाग बयार करे बतियाँ|
दिन रैन कहाँ फिर चैन पड़े कतरा- कतरा कटती रतियाँ|
कविता, वनिता, सविता, सरिता ढक के मुखड़ा छुपती फिरती|
जब रंग अबीर लिए कर में निकले किसना धड़के छतियाँ|
नव लाल गुलाल मले मितवा हँसती सखियाँ हँसती नगरी|
कजरा लहका गज़रा महका मुख लाल हुआ पिघली सगरी|
तन काँप उठा धड़का जियरा चुप देह रही चुप होंठ हिले|
पर बोल पड़ी अँखियाँ पगली छलकी झट प्रीत भरी गगरी|
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० डॉ० आशुतोष जी ,आपको ये दुर्मिल सवैया मुक्तक पसंद आये बहुत बहुत आभार आपका आपको भी होली की शुभकामनाएँ
मेरे ब्लॉग पर आप मेरे लिखे हुए सब छंद पढ़ सकते हैं .
आदरणीया राजेश जी इस अंदाज में आपको पहली बार पढ़ा बहुत ही बढ़िया होली की हार्दिक शुभकामनाये और हार्दिक बधाई सादर
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