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चोटियों को हैं चिढातीं बेटियाँ
अब गगन को भी लजातीं बेटियाँ।1

हो रहे रोशन अभी घर देखिये
रूढ़ियों को तो खपातीं बेटियाँ।2

अब नहीं काँटे चुभेंगे पाँव में
रास्ते फिर से बनातीं बेटियाँ।3

बाँटते- चलते यहाँ सब घर अभी
टूटने से तो बचातीं बेटियाँ।4

फूल की ख्वाहिश पिरोना छोड़िये
शूल को माथे चढातीं बेटियाँ।5

साफ दामन तो रहा है आपका
कालिमा कितना उठातीं बेटियाँ?6

बन धरा जो आसमां को ढ़ो रहीं
देखिये जग को सुहातीं बेटियाँ।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on January 13, 2017 at 8:07pm
आभारी हूँ आदरणीय गिरिराज भाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 11, 2017 at 9:48pm

आदरनीय मनन भाई , काफिये मे समान व्यंजन के पहले का स्वर सामय भी ज़रूरी है , 

अ स्वर साम्य को साम्य नही माना जाता --  इसीलिये

मापती और बोलती  मे   समान व्यंजन  ती हटाने के बाद    माप और बोल बच रहा है    , जिसमे कोई साम्य नही है , अतः काफिया दोष पूर्ण है  , अर्थात नही है ।

Comment by Manan Kumar singh on January 10, 2017 at 3:16pm
अब परिमार्जित रूप में।
Comment by Manan Kumar singh on January 9, 2017 at 4:54pm
आदरणीय मित्रों का आभार,तुरत परिमार्जन करता हूँ।
Comment by नाथ सोनांचली on January 9, 2017 at 3:07pm
आदरणीय मनन जी सादर अभिवादन, इस रचना पर बधाई, शायद यह गजल नहीं है क्या? या है तो काफिया?

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 9, 2017 at 2:12pm

आदरणीय मनन जी इस बार बिना काफ़िये के ही ग़ज़ल ?

Comment by Samar kabeer on January 9, 2017 at 2:02pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,ग़ज़ल में क़ाफ़िया क्या लिया है भाई ?
Comment by Mohammed Arif on January 9, 2017 at 10:48am
आदरणीय मनन कुमारज,बेटी सशक्तिकरण को रेखांकित करती ग़ज़ल के लिए ढेरों.बधाईयाँ स्वीकार करें । सादर.

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