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1212 1122 1212 1122
(मुज़तस मुसम्मन मखबून)

बना है बोझ ये जीवन कदम थमे थमे से हैं,
कमर दी तोड़ गरीबी बदन झुके झुके से हैं।

लिखा न एक निवाला नसीब हाय ये कैसा,
सहन ना भूख ये होती उदर दबे दबे से हैं।

पड़े दिखाई नहीं अब कहीं भी आस की किरणें,
गगन में आँख गड़ाए नयन थके थके से हैं।

मिली सदा हमें नफरत करे जलील जमाना,
हथेली कान पे रखते वचन चुभे चुभे से हैं।

दिखी कभी न बहारें मिले सदा हमें पतझड़,
मगर हमारे मसीहा कमल खिले खिले से हैं।

सताए भूख तो निकले दिलों से आह हमारे,
नया न कुछ जो सुनें हम कथन सुने सुने से हैं।

सदा ही देखते आए ये सब्ज बाग घनेरे,
'नमन' तुझे है सियासत सपन बुझे बुझे से हैं।


मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on November 22, 2016 at 9:27pm
अब ये ग़ज़ल हो गई,बहुत ख़ूब बधाई स्वीकार करें ।

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 22, 2016 at 7:35pm

आदरणीय वासुदेव भाई ,
कदम थमे हुए से हैं
बदन झुके हुए से है
उदर दबे हुए से है       ---  सही है  -  थमे , झुके , दबे  -- में     मात्रिक काफिया  मान्य है , और  हुये से हैं  रदीफ  । आप ऐसा किया जा सकता है ।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 22, 2016 at 7:13pm
यह ग़ज़ल सुधार के पश्चात पुनः प्रेषित हुई है।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 22, 2016 at 4:43pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी और जनाब समर कबीर जी आपका बहुत बहुत आभार। पहले मैं इस गलतफहमी में था कि अ अ अ के स्वर मिला देने से शायद काफ़िया दुरुस्त हो। अब आप गुणीजनों से एक सुझाव चाहता हूँ कि
कदम थमे हुए से हैं
बदन झुके हुए से है
उदर दबे हुए से है
इसी प्रकार अन्य शेरों में कर देने से क्या काफ़िया दुरुस्त हो जायेगा।
Comment by Samar kabeer on November 22, 2016 at 3:09pm
जनाब बासुदेव अग्रवाल 'नमन'जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बाक़ी जनाब गिरराज भाई बता ही चुके है ।
तीसरे शैर में 'आश' नहीं "आस",सातवें शैर में'शब्ज़ बाग'नहीं "सब्ज़ बाग़" ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 22, 2016 at 1:45pm

आदरणीय वासुदेव भाई , रचना के भाव अच्छे हैं , बहर भी अच्छे से निभाया है आपने , लेकिन काफिया  नही होने से आपकी रचना गज़ल होने से रह गई है । ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है , पर गज़ल नही होपायी । प्रयास के लिये आपको हार्द्क बधाइयाँ ।

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