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बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती ।

आखिर वे लोग आ पहुंचे तो बकरे की अम्मा रोने लगी “देखिये आराम से … ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं होगी न … बड़े प्यार से पाला है …”

“आप चिंता न करें हमारे कसाई हाई स्किल्ड हैं …” वे बोले ।

“फ़िर भी …” वह विनती करने लगी ।

“देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 15, 2018 at 3:43am

अधोलिखित सभी उपयोगी व मार्गदर्शक टिपप्णियां पढ़कर मेरे मन में आज जो सूझा, उसे सांझा कर आप  सुधी पाठकगण की राय और इस्लाह चाहता हूँ :

  1. संवाद // “देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”// के स्थान पर यदि ऐसा कुछ कहें, तो ? - //“देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । लेकिन हर बकरा अपने संवैधानिक अधिकारों के सही इस्तेमाल के बारे में  'स्किल्ड' नहीं है ना, सो हमारे बकरे अपना कसाई ही खुद चुन पाते हैं …”//
Comment by Mirza Hafiz Baig on November 25, 2016 at 7:16am

आदरणीय भाई सौरभ पांडे जी, मै आपका और भाई मिथिलेश वामनकर जी का विशेष आभारी हूं । आप दोनो की चिंता आपके लगाव को दर्शाती है । आप लोग सच ही कह रहे है, और आपने तो इसे और स्पष्ट किया है । मै इस विषय पर कुछ और प्रबुद्धजनो की कीमती राय जानना चाहता हूं । हकीकत तो यह है कि यह पूरा का पूरा वाक्य थोपा हुआ है । पहले इसका समापन यूं था-- //हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”// फ़िर लगा कि बात स्पष्ट नही हो रही है तो एक वाक्य जोड़ा-- 'हम हर एक को मताधिकार देते हैं।' फ़िर लगा कि 'मत' शब्द कुछ प्रबुद्धजनो के बीच सिमट कर रह गया है और 'वोट' शब्द लोगों को अधिक उद्वेलित करता है, अत: मताधिकार की जगह 'वोट का अधिकार' जोड़ा । फ़िर लगा इसे और स्पष्ट करना चाहिये तो 'हर एक को' के बीच मे बकरे शब्द को डाला । इस तरह यह पूरा वाक्य थोपा गया । बहरहाल… आप लोगों की चिंताओं के लिये धन्यवाद ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 24, 2016 at 1:44pm

आदरणीय मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग़ साहब, आपकी प्रस्तुति ने बाँध लिया. वाह्, आदरणीय, वाह ! हार्दिक शुभकामनाएँ ! 

आदरणीय मिथिलेश जी के सुझाव तथा आपकी प्रतिक्रिया से गुजरना अच्छा लगा. किन्तु, सही कहिए तो आदरणीय मिथिलेश जी के कहे से मैं भी सहमत हूँ. आपका कहना सही है. लेकिन देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …” जैसा कथन बेहतरीन कटाक्ष के साथ सामने आ रहा है. ’वोट’ शब्द के कारण उस कटाक्ष की तीव्रता में वह सहजपन नहीं रह पा रहा जो बिना इसके ’लोकतंत्र’ और ’खुद चुनने’ जैसे इंगितों से तारी होता है.

यह मेरी समझ भर है. संभवतः मैं एक लेखक के नज़रिये को न पकड़ पा रहा होऊँ. यों, आपकी प्रस्तुति अत्यंत प्रभावी बन पड़ी है.

शुभ-शुभ

Comment by Mirza Hafiz Baig on November 23, 2016 at 1:54pm

भाई मिथिलेश वामनकर जी, इस बेबाक राय का हर्दिक अभिनन्दन ! इसके लिये आपका आभारी हूं; लेकिन अर्ज़ करना चाहता हूं कि मेरा उद्देश्य इस विडम्बना की तरफ़ ध्यानाकर्षण करना था कि लोक की भूमिका वोट तक सीमित कर शासक वर्ग आमजन को बकरा तो नही बना रहा ? लोक तंत्र मे लोक की भूमिका वोट से ज़्यादह नही होनी चाहिये ? बेशक हर एक का जवाब अलग-अलग हो सकता है । लेकिन प्रश्न तो उठना चाहिये न…  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2016 at 12:19am

आदरणीय मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग जी, बहुत ही शानदार प्रस्तुति. हार्दिक बधाई. एक विचार आया मन में, सोचा साझा करता चलूँ-

//हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं //

इसमें वोट शब्द के बिना भी कथ्य के सम्प्रेषण में कोई दिक्कत नहीं हो रही है. ये बकरे की कथा में 'वोट' शब्द थोपा हुआ लग रहा है. यदि इसे सीधा कहा जाये तो? यथा 

देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …

Comment by नाथ सोनांचली on November 21, 2016 at 6:05am
जनाब मिर्जा हाफिज बैग जी बढियाँ कटाक्ष, दिल खोल कर बधाई स्वीकार करें।
Comment by TEJ VEER SINGH on November 20, 2016 at 2:05pm

हार्दिक बधाई आदरणीय मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग जी।बेहद शानदार प्रस्तुति।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 20, 2016 at 7:12am
बहुत बढ़िया! गागर में सागर। प्रतीकों में गंभीर लेखन कर्म की मिसाल। सब कुछ बाख़ूबी सम्प्रेषित व परिभाषित करती हुई रचना के लिए तहे दिल से बहुत बहुत मुबारकबाद मोहतरम जनाब मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग़ साहब।

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