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जीने का अंदाज़ ....

जीने का अंदाज़ .....

अचानक क्या हुआ
हम बेआवाज़ हो गए
हमारे ही लम्हे
हमसे नाराज़ हो गए
कुछ भी तो न था
हमारे दरमियाँ
फिर भी सीने में
हज़ारों राज़ हो गए

हसरतें
लबों की दहलीज़ पर
दम तोड़ती रही
गर्म सांसें
लावे की तरह
राहे उल्फ़त में
एक जुगनू सी उम्मीद लिए
दौड़ती रहीं

हम दोनों के बीच में
क्या है शेष
जो हमको बांधे है
क्यों हम दोनों की आंखें
सागर में नहाई हैं
देखो ! उन अधजले चरागों
धुंआ बाकी है
इस नाराज़ शब् की
सहर अभी बाकी है

क्या सच में हम
इक दूसरे से नाराज़ हैं ?
यदि हां !

तो हमारे गालों पर
ये खारे सागर के निशाँ क्यूँ हैं ?
इन आँखों में
उम्मीदे आफताब की सुर्खियां क्यूँ हैं ?

शायद हमारी तिश्नगी ही
हमें करीब लाएगी
ये नाराज़गी की हद
तोड़ जाएगी
हमारी खामोशियों को
जीने का

अंदाज़ दे जाएगी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 29, 2016 at 1:00pm

आदरणीया राहिला जी प्रस्तुति में निहित भावों पर आपकी ऊर्जा देती स्नेहिल प्रशंसा का दिल से  आभार। 

Comment by Rahila on June 28, 2016 at 8:45pm
हम दोनों के बीच में
क्या है शेष
जो हमको बांधे है
क्यों हम दोनों की आंखें
सागर में नहाई हैं
देखो ! उन अधजले चरागों
धुंआ बाकी है
इस नाराज़ शब् की
सहर अभी बाकी है। क्या खूब लिखा है।भावनाओं का सागर समेटे इस सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई।सादर
Comment by Sushil Sarna on June 28, 2016 at 2:09pm

आदरणीय  रामबली गुप्ता जी प्रस्तुति में निहित भावों को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by रामबली गुप्ता on June 28, 2016 at 1:57pm
वाह आद0 सुशील जी बहुत ही शानदार अतुकांत हृदय से बधाई स्वीकार करिये।
Comment by Sushil Sarna on June 28, 2016 at 1:53pm


आदरणीया राजेश कुमारी जी प्रस्तुति में निहित भावों को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 28, 2016 at 11:36am

क्या सच में हम 
इक दूसरे से नाराज़ हैं ?
यदि हां !

तो हमारे गालों पर 
ये खारे सागर के निशाँ क्यूँ हैं ?
इन आँखों में 
उम्मीदे आफताब की सुर्खियां क्यूँ हैं ?आह्ह्ह 

भावना प्रधान प्रस्तुति दिल छू गई बहुत बहुत बधाई आद० सुशील सरना जी 

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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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