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ग़ज़ल-नूर --वक़्त यूँ आज़माता रहा

२१२/२१२/२१२
.
वक़्त यूँ आज़माता रहा,
रोज़ ठोकर लगाता रहा.

.

साहिलों पर समुन्दर ही ख़ुद,
नाम लिखता,, मिटाता रहा.

.

वो मेरे ख़त जलाते रहे,  
और मैं दिल जलाता रहा.

.

वक़्त कम है, पता था मुझे
रोज़..फिर भी लुटाता रहा.   

.

डूबती नाव का नाख़ुदा,
बस उम्मीदें बँधाता रहा.

.

वो समझते रहे शेर हैं,
धडकनें मैं सुनाता रहा.

.

कोई तो प्यास से मर गया,
कोई आँसू बहाता रहा.

.

ज़ह’न की थी ख़ताएँ मगर,
बोझ दिल ही उठाता रहा.  

.

तीरगी उनको रास आ गयी,
मैं भी जुगनू उड़ाता रहा.

.

लोग पैसे कमाते रहे,
‘नूर’ रिश्ते कमाता रहा. 

.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 339

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 24, 2016 at 11:24pm

वैसे ...इतनी बुरी तो नहीं थी... खैर ....

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 11, 2016 at 8:18pm

शुक्रिया आ. गुप्ता जी .

Comment by रामबली गुप्ता on April 10, 2016 at 2:05pm
वाह आदरणीय .
तीरगी उनको रास आ गयी,
मैं भी जुगनू उड़ाता रहा.
.बहुत खूब शानदार गजल हुई है।

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