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सोच सोच जो रह जाती |

लावनी छंद |
नारी की असीम ताक़त है , मिट्टी को करती सोना |
जंगल में मंगल कर देती , सारे रश्मों को ढोना |
बनती बेटी ससुराल बहू , माँ को छोड पड़े रोना |
अजनवी घर अपना बनाती , हर सुख दुःख पड़े ढोना |
नारी जीवन की धारा है , साथ साथ साथ निभाती |
खुशी खुशी बच्चों को पाले , सबके संग घर चलाती |
घरनी बिन घर सूना लागे , जब छोड़ मायके जाती |
आये जब घर आँगन खिलता , जीवन में खुशियाँ लाती |
पति जाये जब गलत राह पर , विनय कर उसे समझाती |
पर अपने को अबला समझे , हर दबाव को सह जाती |
पुरुष प्रधान समाज में रहकर , नम आँखें कह ना पाती |
जुबाँ खोलने की हठ करती , नर प्रकोप से डर जाती |
साहस कर जो बाहर आती , वो ही आगे बढ़ पाती |
चुप चाप जो दमन सह जाती , वो रोती ही रह जाती |
जमाने के साथ जो बदले , वो समाज सुधार पाती |
वर्मा नारी आगे आये , सोच सोच जो रह जाती |

.
श्याम नारायण वर्मा
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on December 14, 2015 at 3:25pm
उत्साह वर्धन के लिये आपक आभार ।
Comment by Samar kabeer on December 14, 2015 at 10:54am
श्याम नारायण वर्मा जी सूंदर रचना के लिए बधाई हो |

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