1222—1222—1222—1222 |
|
घरौंदें, आस में अक्सर यही जुमलें सुनाते हैं |
‘परिन्दें, शाम होती है तो घर को लौट आते हैं’ |
|
वों तपते जेठ सा तन्हां हमेशा छोड़ जाते हैं |
मगर आँखों के सावन में भला क्यों लौट आते है |
|
कभी जिनके उजालों से रहे हैं खून के रिश्तें |
अंधेरों की कदमबोसी वो करने रोज़ जाते हैं |
|
मुझे महसूस होती है तरसती मुन्तजिर आँखें |
चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं |
|
अजब हैं लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे |
मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते है |
|
मयस्सर है नहीं यारों कफ़न के वास्ते कपड़ा |
न जाने किस तरह से वो नए परचम बनाते हैं |
|
न हंसने का इरादा है न रोने की यहाँ फुरसत |
लगे है सब इसी जिद में ‘चलो अपनी सुनाते हैं’ |
|
इरादे आसमानी हो तो रस्ते खुल ही जायेंगे |
परिन्दें ठान लेते है तो तिनके ढूंढ़ लाते हैं |
|
अगर दिल में ठिकाना है, तो क़दमों को खबर कर दो |
ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं |
|
जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे |
चलो तुमको हमारे गाँव के बरगद दिखाते हैं |
|
|
----------------------------------------------------------- |
Comment
आदरनीय मिथिलेश भाई , क्या खूब गज़ल कही है , हर शे र के लिये अलग अलग दाद हाज़िर है , कुबूल कीजिये ।
अंधेरों को अँधेरों कर लीजियेगा और अगर अच्छा लगे तो - चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं - इस मिसरे को -
चला अब गाँव चलके आज माँ को देख आते हैं ( कि को हटाना उद्देश्य है , चाहे तो आप रहने दें , मुझे भर्ती का शब्द लगा )
हार्दिक आभार आ. तनूजा जी, सादर
सुन्दर गजल मिथिलेश जी ,सादर
आदरणीय मनोज भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर
आदरणीय दिनेश भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर
एक निवेदन - परीन्दें को परिन्दें पढ़ने की कृपा करें. धन्यवाद
आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल पर आपकी दाद और सार्थक प्रतिक्रिया पाकर आश्वस्त हुआ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
आपने सही कहा परीन्दें में 2+2=5 वाली भूल हुई है. सही वर्तनी 'परिन्दें' ही है. गलती सुधारता हूँ. मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद
सादर
आदरणीय सुशील सरना सर, आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया सदैव मेरा मनोबल बढाती है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online