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शहर की रूमानियत जाने कहाँ पर खो गयी

शहर की रूमानियत, जाने कहाँ पर खो गयी

एक चिंगारी से गुलशन, खाक जलकर हो गयी

अजनबी से लग रहे हैं, जो कभी थे मित्रवत

रूह की रूमानियत, झटके में कैसे सो गयी

ख्याल रखना घर का मेरा, जा रहे हैं छोड़कर

सुन के उनकी बात जैसे, आत्मा भी रो गयी

सड़क सूनी, सूनी गलियां, बजते रहे थे सायरन

थे मुकम्मल कल तलक सब, आज ये क्या हो गयी

रब हैं सबके बन्दे उनके, एक होकर अब रहो

इस धरा को पाक रक्खो, साख सबकी खो गयी 

(मौलिक व अप्रकाशित) 

- जवाहर लाल सिंह 

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 24, 2015 at 6:42pm

आदरणीय सुशील सिंह जी, सादर अभिवादन ...मेरी भावना को सम्मान देने के लिए आपका ह्रदय से आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 24, 2015 at 6:41pm

आदरणीया कांता जी, सादर अभिवादन! आपने मेरी अभिव्यक्ति को समझा, सराहा, मान दिया इसके लिए मैं आपका शुक्रगुजार हूँ ...शिल्पगत त्रुटियाँ हो सकती हैं, जिनमे मैं अभी सीखने के दौर में हूँ, पर भावनाएं व्यक्त कर पाया हूँ इसका मुझे संतोष है ..सादर!

Comment by Sushil Sarna on July 24, 2015 at 3:25pm

ख्याल रखना घर का मेरा, जा रहे हैं छोड़कर
सुन के उनकी बात जैसे, आत्मा भी रो गयी

वाह बहुत ही सुंन्दर भाव बन पड़े हैं आदरणीय जवाहर जी … इस गहन अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by kanta roy on July 24, 2015 at 11:32am
बेहद भावपूर्ण प्रस्तुति है यह आपकी । शहर की रूमानियत जाने कहाँ खो गई.......
अजनबी से लग रहे हैं, जो कभी थे मित्रवत
रूह की रूमानियत, झटके में कैसे सो गयी........ बडी बातों में ही कई बात आप ऐसे कह गये ... जाने कितने गये गुजरे जमाने खो गये । स्वार्थ के पैरों तले रौंदे गये सब रौनके .......बधाई आपको आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी

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