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एक था भेंडर ( सच्ची कथा....'राज' )

जैसे ही कोई छुट्टी आती थी गाँव जाने का अवसर मिल जाता था चेहरा खिल उठता था  मन की मुराद पूरी जो हो जाती थी एक तो दादा जी, चाचा,चाची से मिलने की उत्सुकता दूसरे खेलने कूदने मस्ती करने की स्वछंदता हमेशा गाँव की ओर खींचती थी| उत्सुकता का एक कारण और भी था वो था .. कौतुहल से बच्चों की टोली में जुड़कर “भेंडर” की हरकतों का मजा लेना |

लेकिन उसका उपहास बनाने वालों को मैं पसंद नहीं करती थी|

घर वाले कहते थे उसे भेंडर नहीं भगत जी कहा करो हाँ कुछ गाँव वाले उसे भगत जी कहते थे क्यूंकि भेंडर के नाम से वो चिढ़ता था और बच्चों को उसे चिढाने में बहुत मजा आता था|

वो सबके घर जाकर बारी-बारी से खाना माँगने जाता था| मैं बहुत छोटी थी फिर भी मुझे उसके पास जाने में डर नहीं लगता था थाल में खाना देकर आती थी वो बहुत प्यार भरी नजरों से मुझे देखता पास जाने पर सिर पे हाथ फिराता था|

  मुझे याद है वो बहुत बदसूरत था डरावना चेहरा था जिसका कारण हमे पता चला था कि एक बार होली दहन पर शरारती बच्चों ने उसे आग में धक्का दे दिया था जिसकी वजह से वो बदशक्ल हो गया था| गाँव के आधे लोग जहाँ उससे सहानुभूति रखते वहीँ कुछ लोग उसकी इस अवस्था से फायदा भी उठाते थे| पूरे दिन खेत में काम करवाते तब जाकर दो रोटी फेंक देते|एक दो बार तो मैंने भी उसको रहट खींचने के लिए बैल के साथ जुड़े देखा हालांकि उसके बाद गाँव के भले लोगों ने पंचायत कर उन लोगों का हुक्का पानी भी कुछ दिन के लिए बंद किया|

भेंडर की दो ख़ास बात बताना चाहूँगी एक तो जब वो अकेला होता था वो रो रो कर ओ भाई ,ओ भाई तू कहाँ है अब आजा कह कह कर चिल्लाता था रात को दूर तक उसकी आवाजें जाती थी| दूसरे बच्चे व् कुछ बड़े भी जब उसे भेंडर तेरी लच्छो कह कर भागते थे तो उसकी आँखों में खून उतर आता था वो पत्थर मारने शुरू कर देता था हमे उस वक़्त कुछ भी समझ नहीं आता था|

लेकिन जब वो खुश होता तो वो लोगों का भविष्य भी बता देता था जो सच भी निकलता था तब से उसका नाम भगत जी भी पड़ गया|

 बचपन में भेंडर कौन था,हमारे गाँव में कहाँ से आया था,उसकी विक्षिप्तता का क्या कारण था ये सब जानने की ना ही उम्र थी ना ही कोई जिज्ञासा|            

पिछले दिनों गाँव में किसी कारण जाना हुआ तो अपने बचपन की बातों में भेंडर का जिक्र आया तो किसी ने कहा उसके जीवन पर कुछ लिखो उसी वक़्त मेरे मन में इस सस्मरण ने जन्म लेना शुरू कर दिया|

अब वक़्त था कि अपने कुछ बुजुर्गों से अपने बड़े भाई से भेंडर के जीवन की गाथा सुनूँ |.....

माता पिता के देहांत के बाद दो भाइयों को बहन लच्छो अपनी ससुराल अपने पास ले जाती है वहाँ उसकी ससुराल वाले उनको स्वीकार नहीं करते बहन जीवन में संघर्ष करती है उनसे मजदूरों की तरह काम लिया जाता है तब रोटी मिलती है|धीरे-धीरे किशोरावस्था में कदम रखते हैं एक मनहूस दिन चेचक ऊपर से घरवालों की मार से बहन दम तोड़ देती है|

दर्द और नफरत हद से ज्यादा बढ़ने पर बड़े भाई से जीजा का खून हो जाता है और रातोरात दोनों भाई जंगल जंगल भागते-भागते किसी दूर गाँव में पंहुच जाते हैं कुछ साल गुजरते हैं फिर वो गाँव भी छोड़ना पड़ जाता है बहन के गम में तथा जमाने  की ठोकरों से तब भेंडर की मानसिक अवस्था गड़बड़ाने लगती है  

लगभग तीस साल की उम्र में दोनों भाई हमारे गाँव में पँहुचे बड़ा भाई काम करने लगा छोटे भाई का इलाज व् खाने पीने का काम चलने लगा मगर दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा एक दिन बड़े भाई का बस से एक्सीडेंट हो गया और वो चल बसा|भाई की चिता को अग्नि देते वक़्त भेंडर इतनी जोर  से चिल्लाया कि सब सहम गए|उस दिन से भेंडर होशोहवास खो बैठा उसकी जिंदगी ,भूखा पेट दूसरों के रहमोकरम पर टिक गया |

जो भी दया करता उसे नहला कर नए कपड़े पहना देता| गाँव का कोई घर ऐसा नहीं था जहाँ उसने काम न किया हो धीरे धीरे गाँव का वो एक अहम् हिस्सा हो गया|बीमार होने पर गाँव के ही डॉक्टर उसकी चिकित्सा को उसके पास ही पंहुच जाते थे|एक दिन दिखाई न दे तो गाँव वाले उसे ढूँढने निकल पड़ते थे बारिश, धूप में अपने यहाँ आसरा देते थे उसका कोई घर नहीं था बाद में पूरा गाँव ही उसका घर बन गया था |

अब भेंडर की उम्र अस्सी साल की हो चुकी थी अपनी लाचारी से बहुत परेशान था| लगभग छः साल पहले उस रात बहुत समय  बाद  लोगों ने उसकी दर्द भरी आवाज फिर से सुनी ..ओ भाई ओ भाई  अब आजा ...ओ भाई अब आजा ....

और अगली सुबह गाँव में आग की तरह खबर दौड़ गई कि भेंडर का शव सड़क के बीचोबीच खून से लथपथ पड़ा था जो भयंकर सर्दी के कारण लकड़ी की तरह अकड़ चुका था|     

उसकी अंतिम यात्रा में आसपास के गाँव के भी  इतने लोग जुड़े कि कभी पहले        

किसी बड़े आदमी की यात्रा में नहीं देखे.गए|                

आज हमारे गाँव में शुरू में ही उसकी  समाधि बनी हुई है कोई भी  गाँव में घुसने से पहले उसे शीश झुकाना नहीं भूलता|

 मैं भी भगत जी को नमन करते हुए ये संस्मरण समाप्त करती हूँ| भगवान अपने वहाँ तो उसे सुख शान्ति प्रदान करे... ॐ शान्ति | 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 28, 2015 at 10:53am

ये संस्मरण आपको रुचिकर लगा मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से आभारी हूँ डॉ० नीरज जी  

Comment by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on July 27, 2015 at 11:34pm

सुन्दर संस्मरण , कथा के रूप में । बधाई आपको आ. राजेश कुमारी जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 27, 2015 at 9:18pm

बहुत बहुत  शुक्रिया शिज्जू भैया, कहानी पर वक़्त देने के लिए और सराहना के लिए. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2015 at 9:13pm

आदरणीया राजेश दीदी बहुत सुंदरता से ये कथा प्रस्तुत की है आपने बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 24, 2015 at 8:35pm

प्रिय प्राची जी,इस प्रस्तुति  पर आपकी उपस्थिति और इस संस्मरण को धैर्यपूर्वक पढना हर्षित कर गया आपने अपने बेहतरीन विचारों  से इस प्रस्तुति का अनुमोदन किया  दिल से बहुत- बहुत आभार आपका. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 23, 2015 at 10:42pm

ज़िंदगी किन किन रास्तों से हो कर गुज़र सकती है....

क्या से क्या बना देती है? 

एक विकृत होती ज़िंदगी का संस्मरण आरम्भ से अंत तक बहुत रोचक तरह से आपने प्रस्तुत किया है 

प्रस्तुति के लिए बधाई 

इस संवेदनशीलता के लिए नमन 

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 23, 2015 at 8:26pm

विनय कुमार जी,गाँवो में अभी भी लोगों के दिलों में संवेदनाएँ जीवित हैं कोई गलत करने से पहले भगवान फिर पंचायत आदि से डरते हैं जबकि ये बात तो उस वक़्त की है जब एक हुक्के को दस लोग मिल बाँट कर पीते थे |आपने इस  संस्मरण को वक़्त दिया आपको ये   अच्छा लगा दिल से बहुत- बहुत आभारी हूँ | 

Comment by विनय कुमार on July 23, 2015 at 8:09pm

आप का ये संस्मरण पढ़ कर मुझे भी याद हो गया हमारे गाँव का एक किस्सा | ऐसे तमाम लोग पाये जाते रहे हैं गांवों में जिनका वैसे तो कोई नहीं होता लेकिन सभी उनके होते हैं | बढ़िया संस्मरण , अच्छी तरह से प्रस्तुत किया आपने , बधाई आदरणीया..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 23, 2015 at 7:24pm

आ० सौरभ जी, आपने मेरे इस संस्मरण पर वक़्त दिया उसके लिए बहुत- बहुत आभारी हूँ आपको पढने में रोचक लगा मेरा लिखना सफल हो गया दिल से आभार आपका.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2015 at 4:28pm

काल निर्पेक्ष किस्सा है यह. एक लघु उपन्यास का मजा दे गया यह संस्मरण, आदरणीया राजेश कुमारीजी. हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए.

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