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स्वतन्त्र नदी ........इंतज़ार

बरसाती नदी सी क्यूँ हो तुम ?
किसी और की मनोदशा
निर्धारित करती है तुम्हारा बहाव
किसी की मेहेरबानी से चल पड़ती हो
तो कभी सूख जाती हो
कभी सोचा है
मेरा हाल उस मछली की तरहाँ होता है
जो बचे-खुचे कीचड़ में
तड़पती है सिर्फ़ भीगने के लिये
जिंदा रहने के लिये
और जब सैलाब आता है
तो बहुत दूर बह जाती है बेकाबू
तुम कब एक प्रवाह में स्वतन्त्र बहोगी
नदी हो... पहाड़ों से टक्कर ले जीत चुकी हो
अब कोई कैसे स्वार्थ के बांध बना
रोक सकता है तुम्हारा प्रवाह
हे प्रिये ....तोड़ कर सब बंधन
बह निकलो एक स्वतन्त्र
कल-कल करती नदी सी !!

************************************************

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 7, 2015 at 5:00pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी तहे दिल से आभार ....सादर 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 7, 2015 at 4:59pm

आदरणीया kanta roy जी आपकी उपस्तिथि एवं सराहना के लिये हार्दिक आभार ...सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 7, 2015 at 4:34pm

नारी स्वतंत्रता का आह्वान करती भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करे आदरणीय मोहन सेठी जी

Comment by kanta roy on July 7, 2015 at 1:28pm
अद्भुत संवेदना से भरी अभिव्यक्ति हुई है । नदी का स्वतंत्रता से बहने का आवाहन ..." बरसाती नदी सी क्यों हो तुम "......भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकार करे आदरणीय मोहन सेठी ' इंतजार' जी

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