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''खुशबू ओढ़ कर निकलता है''

२१२   १२१२   २२

 

खुशबू ओढ़ कर निकलता है

फूल जैसे कोई चलता है

..

 

रास्ते महकते हैं सारे

जिस भी सिम्त वो टहलता  है

..

 

हुस्न आफ़रीं कि क्या कहने 

जो भी देखे हाथ मलता  है

..

 

गो धनुक है पैरहन उसका       (धनुक=इन्द्रधनुष)

सात रंग में वो ढलता है

..

 

रंगा मुझको जाफ़रानी यूँ         (जाफ़रानी=केसरिया)

रात-दिन चराग़ जलता है

..

 

इश्क मुझको भी है तुमको भी

वख्त मायने बदलता है

..

 

दोस्त अब कहाँ वो पहले से?

मिलके दिल कहाँ उछलता है?

..

 

अब के हम भी चल बदल जायें

सिक्का कब पुराना चलता है ?

..

 

है फिजा में जह्र वो घोला

दुपहर आदमी उबलता है  

..

 

आ लगायें पेंड उजाले के  

वो सदाकतें ही फलता है

 ..

जब तलक न बोस हों दो शय

रौशनी का पर न जलता है

 

 

*************************************

  मौलिक व् अप्रकाशित (c)‘जान’ गोरखपुरी

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 17, 2015 at 1:21am

खुशबू( बिखेरता चलता) है
फूल जैसे कोई चलता है
बहुत खूबसूरत, प्रिय कृष्ण मिश्रा जी, बधाई, सादर।

Comment by Samar kabeer on June 16, 2015 at 11:17pm
जनाब "जान" गोरखपुरी जी,आदाब,इस भावपूर्ण ग़ज़ल के लिये मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by narendrasinh chauhan on June 16, 2015 at 4:59pm

खूब सुन्दर गजल वाह

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 4:24pm

Sublime.   Oh... my little master .You are a genius . I love you.  Pl. carry on .God bless you.

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