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ग़ज़ल - गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ? // --सौरभ

२१२२ १२१२ २२

साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?

चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?

सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ?

चाँद है वो, मगर सितारों की
उसने फिर से सभा बुलाई क्या ?

क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?

मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या !

खुदकुशी के हुनर में माहिर हूँ
कामना क्या, मुझे बधाई क्या ?

लग गया खूँ अगर किसी मूँ को,
फिर तो मालूम है, दवाई क्या !
***************
-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 27, 2015 at 10:55am
जनाब सौरभ पांडे जी,आदाब,इसके लिये मेरे पास कोई विशेष तर्क तो नहीं लेकिन चूँकि मैं उर्दू का तालिब इल्म हूँ इसलिये हिंदी को पूरी तरह समझने में मुझे समय लग जाता है ,"जीलूँ" एक सार्थक आप्शन है,यह अपने स्वीकार किया है,मैं बाल की खाल नहीं निकाल रहा,सिर्फ़ "जीयूँ" शब्द से जुड़े तथ्यों को पूरी तरह समझना चाहता हूँ ।
"जीयूँ"-"जियूँ"-"जीलूँ" इन तीनों शब्दों का अर्थ ज़िंदा रहना ही है,अब आइये आपके शैर की तशरीह करते हैं :-

"सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या"

यानी सब अपने अपने उद्देश्य और मतलब से ही ज़िंदा हैं ,इसी तर्ज़ पर अगर मैं भी ज़िंदा रहूँ तो इसमें बेवफ़ाई क्या है,अब देखिये इस शैर के शब्दों को बदलकर देखते हैं:-
"सब इसी राह से गुज़रते हैं
मैं भी गुज़रूँ तो बेवफ़ाई क्या"

यानी जो काम सब कर रहे हैं उसे मैं भी करलूँ तो इसमें बेवफ़ाई क्या है,"जीयूँ" शब्द की वजह से शैर पर एक अजीब सा दबाव रवानी को रोक रहा है,इसी बात के मद्देनज़र मैंने अर्ज़ किया था कि "जीलूँ" करना क्या उचित होगा ? अब मुझे ये बताइये के "जियूँ" और "जीयूँ" में क्या अंतर है ?

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 27, 2015 at 5:43am

आदरणीय सौरभ भाई , मुग्ध हूँ आपकी इस ग़ज़ल पर ,  कहन पर , क्या बात है - 

चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ? 
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या   

सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं भी जीयूँ तो बेवफ़ाई क्या ?

मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या    --- क़ुरबान इस कहन पर , सोचता हूँ मै कब और कहाँ पाऊँगा  ऐसी कहन ? 

और एक शे र मेरे दिल को ठंडक देने के लिये ही जैसे कहा गया हो - 

क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?    -- वाह इसे पढ़ के कुछ हलका हुआ ऐसा लगा , हार्दिक बधाइयाँ ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 27, 2015 at 12:16am

:-))

अच्छा ये यो यो वो पानी-पानी वाला यो यो हनी सिंह है.. ! हा हा हा...

आपकी दूसरी प्रतिक्रिया न केवल स्पष्ट है बल्कि मुझे आश्वस्त करती और मेरा हौसला बढ़ाती हुई भी है. सोच और शाब्दिकता को अनुमोदित करने के लिए सादर धन्यवाद, आदरणीय ..

सादर

Comment by shree suneel on May 27, 2015 at 12:05am
आदरणीय सौरभ सर, मैं बिल्कुल आपकी कहन के साथ हूं. और ये संप्रेषणीय भी है. शायद मेरी टिप्पणी हीं अस्पष्ट हो गई.
मैं बस यही कहना चाह रहा था कि मुझसे कई ऐसे लोग मिलते हैं जो कहते हैं,' कहाँ गीत ग़ज़ल रूबाइ में पड़े हो. लिखते हीं हो तो कुछ चटकदार लिखो जैसा यो यो (एक बालीवुड गायक) गाता है.'
उनके हवाले से देखें तो
क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?
और भी मानी होंगे, बस मैंने स्वयं से जोड़ कर देखा. शायद पहले से कुछ अधिक स्पष्ट कह सका. सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 11:17pm

आदरणीय समर् साहब, मेरी ग़ज़ल पर आपने इतना समय दिया है वह मेरे लिए भी गर्व का विषय है.
मैंने जो कुछ समझा है इसी वातावरण में सीखा है और फिर उससे आगे बढ़ता गया हूँ.


मैंने किसी प्रस्तुति विशेषकर ग़ज़लों के संदर्भ में यही समझा है कि किसी प्रस्तुति के सर्जन के प्रथम सोपान पर शिल्प, शाब्दिकता और प्रवाह का हुआ करते हैं. दूसरा सोपान भावदशा को समझने और संप्रेषणीयता को बरतने का होता है. तीसरा सोपान, दोनों सोपानों को समवेत लिये हुए प्रस्तुति के उद्येश्य और निहितार्थ की अभिव्यक्ति का कारण हुआ करता है.

आदरणीय समर साहब, इस परिप्रेक्ष्य में मैं मात्र प्रवाह को प्रभावी होने दूँ या किसी शब्द की प्रयुक्तता के ’कारण’ को प्रभावी मानूँ ?  वैसे भी, ग़ज़ल की विधा शब्दों की निरुद्येश्य प्रस्तुति होती भी नहीं.
हम किसी प्रस्तुति के माध्यम से यदि शब्द प्रयुक्तता पर ऐसी चर्चा करें तो मंच अवश्य लाभार्थी होगा. आपका सदा स्वागत है.
सादर

Comment by Samar kabeer on May 26, 2015 at 11:01pm

जनाब सौरभ पांडे जी,आदाब,"जीयूँ" , "जीलूँ" में बाल से भी बारीक अंतर जो आप ने समझाया है वो मैं समझ गया,11 घंटे से मैं इसी शैर पर विचार कर रहा हूँ,अक़्ल ने तो आप की बात मान ली लेकिन पता नहीं क्यूँ दिल नहीं मान रहा है,रवानी के हिसाब से "जीलूँ" शब्द ही मुनासिब लग रहा है लेकिन आप अपने दिल की ही मानियेगा ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 10:47pm

//कई लोग मिलते हैं जिनकी बातों का मतलब होता है 'गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?' बस.. वो तो यो यो. //

आदरणीय श्री सुनीलजी, मुझे आपकी टिप्पणी के इस हिस्से से कुछ पल्ले नहीं पड़ा, आप कहना क्या चाहते हैं ?
आप इस शेर को क्या अन्यथा या असंप्रेषणीय समझ रहे हैं जिसका निहितार्थ स्पष्ट नहीं है?

यदि ऐसा है तो स्पष्ट कहें. यह मंच प्रस्तुत हुई रचनाओं पर संवाद करने का है.
सादर

Comment by shree suneel on May 26, 2015 at 10:33pm

क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख...
आदरणीय सौरभ सर, कई लोग मिलते हैं जिनकी बातों का मतलब होता है 'गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ?' बस.. वो तो यो यो...
बहरहाल, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई आदरणीय.

मुट्ठियों की पकड़ बताती है
चाहती है भला कलाई क्या ! ख़ूब.. ख़ूब


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 8:46pm

भाई नीरज नीरजी, आपकी संवेदनशील दृष्टि ने इस प्रस्तुति को हार्दिक मान दिया है. शेरों को पसंद करने केलिए बहुत-बहुत धन्यवाद.

भाई, उद्धृत शेरों के बाबत आपने जो कुछ समझा उसे साझा किया होता.. :-))
आपकी उपस्थिति उत्साहवर्द्धक होती है.

Comment by Neeraj Neer on May 26, 2015 at 7:33pm

वाह वाह क्या खूब गजल हुई है ...

चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ? 
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?..... क्या कहने ..... बेहतरीन ..... मैं जो समझा हूँ , जरूरी सभी लोग वैसा समझें .... पर मैं जो समझा अगर वही सब समझ जाते तो ........ 

क्या अदब ? लाभ पढ़, मुनाफ़ा लिख
गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ? और इसके तो क्या कहने वहुत ही करारा कटाक्ष वर्तमान साहित्यिक परिप्रेक्ष्य को दृष्टिगत करते हुए ......... हार्दिक बधाई ... 

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