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ग़ज़ल -नूर हमनें ये जिस्म पाप का गट्ठर बना दिया.

गागा लगा लगा/ लल/ गागा लगा लगा

आवारगी ने मुझ को क़लन्दर बना दिया
कुछ आईनों ने धोखे से पत्थर बना दिया.
.
जो लज़्ज़तें थीं हार में जाती रहीं सभी  
सब जीतने की लत ने सिकंदर बना दिया.
.
नाज़ुक से उसने हाथ रखे धडकनों पे जब  
तपता सा रेगज़ार समुन्दर बना दिया.
.
एहसास सब समेट लिए रुख्सती के वक़्त
दीवानगी-ए-शौक़ ने शायर बना दिया. 
.
जो उस की राह पे चले मंज़िल उन्हें मिले  
बाक़ी तो बस सफ़र ही मुकद्दर बना दिया.
.
उसने हमें नवाज़ दिया ख़ुद उसी का घर 
हमनें ये जिस्म पाप का गट्ठर बना दिया.
.
कैसे मुजस्मासाज़ तुझे शुक्रिया कहूँ 
कंकर था मैं तराश के शंकर बना दिया.
.
निलेश "नूर" 
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 14, 2015 at 8:42pm

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

Comment by दिनेश कुमार on May 14, 2015 at 5:34pm
जो लज़्ज़तें थीं हार में जाती रहीं सभी
सब जीतने की लत ने सिकंदर बना दिया....

सभी अशआर बहुत बढ़िया आ.निलेश जी। वाह वाह वाह। कमाल की ग़ज़ल हुई है।
Comment by Nirmal Nadeem on May 14, 2015 at 3:06pm
हर शेर लाजवाब वाह वाह वाह बहुत उम्दा। सलामत रहें सर।
Comment by मनोज अहसास on May 14, 2015 at 2:28pm
सादर बधाई
खूबसूरत ग़ज़ल
जैसे इबादत में कहे बोल
और बहर बताने का बढ़िया तरीका
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 14, 2015 at 1:51pm

उसने हमें नवाज़ दिया ख़ुद उसी का घर 
हमनें ये जिस्म पाप का गट्ठर बना दिया. वाह वाह!

क्या बात है आ० सुन्दर गज़ल पर दाद कबूल करें!सादर!

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