उस घर के आँगन में लोगों का जमावड़ा लगा हुआ और माहौल एकदम शांत था. अचानक जैसे ही तिरंगे में लिपटे हुए शव को सेना के वाहन से लाया गया तो सबसे पहले अपना होश खोकर वो घर के अन्दर से पागलों की तरह चीख मारती हुयी अपने दस वर्षीय बेटे के साथ, बाहर आकर सीमा पर शहीद हुए अपने पति के शव से लिपट-लिपट कर रोने लगी. शहीद सीमा सुरक्षा बल का जवान था. उसने दुश्मनों की सीमा में घुसकर उनके दल-बल को तहस-नहस कर डाला. बाद में दुश्मनों ने धोखे से उसे बंदी बनाकर रखा, फिर उसकी आँखें फोड़ दी गईं और शरीर को गोलियों से छलनी कर फेंक दिया. बुरी तरह क्षत-विक्षत चेहरे को देख, थोड़ी देर में ही रोते-रोते उसके मुंह से आवाज निकलना बंद हो गया.. और पास ही बैठा उसका लाल, उसकी ठोड़ी को अपने नन्हे हाथों से पकड़कर बोला...
“ माँ!! मैं भी बड़ा होकर, पापा की तरह दुश्मनों को मार गिराऊंगा...”
उस विधवा ने अपने हाथ को अपने बेटे के सिर पर फेरते हुए एक माँ के फर्ज अदा करने की ठान ली थी...
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
बहुत उम्दा , बधाई इस लघुकथा के लिए .. |
रचना पर आपकी सराहना व् मार्गदर्शन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार, आदरणीय अमन जी
सादर!
लघुकथा की प्रोत्साहित करती सराहना हेतु आपका आभारी हूँ, आदरणीय मोहन जी
सादर!
लघुकथा के मर्म को आपने छुआ, आपका ह्रदय से आभार, आदरणीय डा.गोपाल जी
सादर!
रचना पर आपके आशीर्वाद हेतु आपका आभारी हूँ,आदरणीय डा.विजय जी
सादर!
लघुकथा की सराहना हेतु आपका आभारी हूँ, आदरणीय मिथिलेश जी
सादर!
आदरणीय पंकज जी, आपका बहुत-बहुत आभार
सादर!
लघु कथा मे रेपोर्टिंग के गुण आ रहे है !
विसय वस्तु अच्छी है !
युद्ध से आज तक कुछ हल नहीं हुआ मगर कमज़ोर भी नहीं पड़ सकते .......सादर
जीतू भैय्या
आपकी प्रस्तुति मार्मिक है . सादर .
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