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प्यार होना भी जरूरी औ’ जरूरी दौलतें - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2122    2122    2122        212
****************************
जब धरा  पर रह  न पाये जो कभी औकात से
चाँद पर पहुँचो भले ही  क्या भला इस बात से
****
मुफ्तखोरी  की  ये  आदत  यार  चोरी से बुरी
चोर  भी समझा  रहा ये  बात  हमको रात से
****
बाँटने  में  हर  हुकूमत,  व्यस्त  है  खैरात ही
देश का, खुद का भला कब, हो सका खैरात से
*****
हो  न पाये कौवे शातिर, लाख कोशिश बाद भी
बाज  आयी  कोयलें  कब,  दोस्तों  औकात से
*****
प्यार   होना  भी   जरूरी   औ’   जरूरी   दौलतें
चल  नहीं  पाती  अकेले,  जिन्दगी  जज्बात से
*****
बेअसर  हमको   तो   धूपें   जेठ   की  भी हो गयीं
भीगता पलपल है  दामन,  अश्क  की  बरसात से
*****
छोड़ दें इससे ‘मुसाफिर’, स्वप्न का भी स्वप्न क्या
लड़  न  पाये  स्वप्न  को  गर  यार  हम हालात से
*****
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

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Comment

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Comment by Shyam Mathpal on March 19, 2015 at 7:38pm

  आदरणीय लक्ष्मण धामी जी,

  वाह--वाह बहुत खूब . आनन्द आ गया .बहुत बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 19, 2015 at 6:37pm

मुफ्तखोरी  की  ये  आदत  यार  चोरी से बुरी
चोर  भी समझा  रहा ये  बात  हमको रात से----वाह वाह 
****
हो  न पाये कौवे शातिर, लाख कोशिश बाद भी 
बाज  आयी  कोयलें  कब,  दोस्तों  औकात से------बेहतरीन शेर अच्छा व्यंग्य 

बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई लक्ष्मण भैय्या दिली बधाइयां 

एक इस्स्लाह यदि ठीक लगे तो --बेअसर  हमको   तो   धूपें   जेठ   की  भी हो गयीं---इसको निम्नवत लिखें तो कैसा रहे (धूप को धूपें.बहु वचन में लिखना मेरे ख़याल से गलत होगा )

धूप हम पर जेठ की भी बेअसर सी हो गई 
**बहुत बहुत बधाई 

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 19, 2015 at 6:23pm
वाह सर बहुत खूब ,,,,,,,,,,,, बहुत बहुत बधाई
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 19, 2015 at 5:22pm
बाँटने में हर हुकूमत, व्यस्त है खैरात ही
देश का, खुद का भला कब, हो सका खैरात से ॥
वाह ! सार है अव्यवस्था का , बहुत बहुत बधाई, आदरणीय लक्षमण धामी जी, बधाई , सादर।
Comment by नादिर ख़ान on March 19, 2015 at 3:56pm

आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत उम्दा गज़ल कही क्या कहने हर शेर लाजवाब है यूँ तो  मतले ने ही समां बांध दिया है।

बहुत बहुत बधाई ......

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 19, 2015 at 3:29pm

अरे आ० धामी साहेब! आपके तसव्वुर के तो हम दीवाने हो गये! इस मंच पर मेरे द्वारा पढ़ी गयी अब तक की सबसे बेहतरीन गज़ल!

हर शेर लाजव़ाब!

दो-तीन शेर तो बरसों कानों में गूजते रहेंगे!!

बेअसर  हमको   तो   धूपें   जेठ   की  भी हो गयीं
भीगता पलपल है  दामन,  अश्क  की  बरसात से      लाजवाब लाजव़ाब!

प्यार   होना  भी   जरूरी   औ’   जरूरी   दौलतें
चल  नहीं  पाती  अकेले,  जिन्दगी  जज्बात से     क्या बात है ! बेहद उम्दा!! ये शेर तो आपके नाम के साथ अमर हो गया!

 मात्रा गिराने की छूट को कैसे कम से कम प्रयोग करें! ये गजल उसकी बानगी देती है!अभिनन्दन!

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