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"कहूँ कुछ और कुछ निकले जुबां से “ एक तरही ग़ज़ल ( गिरिराज भंडारी )

१२२२        १२२२      १२२ 

शिकायत हो न जाये आसमाँ से

अँधेरा अब उठा ले इस जहाँ से   

 

अगर चुप आग है, तो कह धुआँ तू  

शनासाई ये कैसी इस मकां से 

 

तेरे कूचे के पत्थर से हसद है

शिकायत क्यूँ रहे तब कहकशाँ से

 

सुकूने ज़िन्दगी अब चाहता हूँ  

बहुत उकता गया हूँ इम्तिहाँ से

 

कभी थे फूल से रिश्ते मगर अब   

तगाफ़ुल से हुये हैं वे गिराँ से

 

परिंदों के परों ने की बग़ावत

सवाल अब पूछ्ना क्यूँ बागबाँ से 

 

सभी बातिल इकठ्ठे हो रहे हैं

लिये सच हम खड़े हैं नातुवाँ से

 

सियासत की बहुत मोटी है चमड़ी

रही है बेअसर आह-ओ- फुगाँ से

 

ख़ुदा के नूर से बेखुद हुआ यूँ

‘ कहूँ कुछ और निकले कुछ ज़ुबाँ से

**********************************

मौलिक एवँ अप्रकशित

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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 16, 2015 at 4:12am
धुँआ और धुआँ में सशंकित हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 16, 2015 at 4:11am
आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई। शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाये
काफ़िया निर्धारण की दृष्टि से हुस्ने मतला अगर मतला बन जाए तो बेहतर होगा। आसमां और जहां पर काफ़िया गिरां नातुवां आदि
Comment by Hari Prakash Dubey on March 16, 2015 at 3:45am

आदरणीय गिरिराज सर  सुन्दर प्रस्तुति ,इन पंक्तियों पर विशेष ध्यान आकर्षित हो रहा है

/सुकूने ज़िन्दगी अब चाहता हूँ 

बहुत उकता गया हूँ इम्तिहाँ से/..वाह

/ परिंदों से परों ने की बग़ावत

सवाल अब पूछ्ना क्यूँ बागबाँ से/...बहुत खूब

/ ख़ुदा के नूर से बेखुद हुआ यूँ

‘ कहूँ कुछ और निकले कुछ ज़ुबाँ से/...शानदार , हार्दिक बधाई सर ! सादर 

Comment by maharshi tripathi on March 15, 2015 at 9:41pm

बहुत खूबसूरत रचना आ. गिरिराज भंडारी सर जी ,,,,ढेरो बधाई आपको |

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 15, 2015 at 8:39pm
सुकूने ज़िन्दगी अब चाहता हूँ

बहुत उकता गया हूँ इम्तिहाँ से

वाह बहुत खूब वाह अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई

कृपया ध्यान दे...

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