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ग़ज़ल : गाँव कम हैं प्रधान ज्यादा हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

---------

फ़स्ल कम है किसान ज़्यादा हैं

ये ज़मीनें मसान ज़्यादा हैं

 

टूट जाएँगे मठ पुराने सब

देश में नौजवान ज़्यादा हैं

 

हर महल की यही कहानी है

द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं

 

आ गई राजनीति जंगल में

जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

 

हाल क्या है वतन का मत पूछो

गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं

---------

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by maharshi tripathi on March 2, 2015 at 5:14pm

वाह!! इस बेहद सुन्दर गजल पर आपको बधाई आ.धर्मेन्द्र कुमार जी |

Comment by Nirmal Nadeem on March 2, 2015 at 4:11pm

HAAL MAT POOCHH DESH KA SAJJAN.

POOCH MAT HAAL DESH KA SAJJAN

DESH KA HAAL POOCH MAT SAJJAN

AGAR AAPKO THEEK LAGE TO

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2015 at 4:00pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय khursheed khairadi साहब।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2015 at 3:59pm

दाद के लिए शुक्रिया Nirmal Nadeem जी, त्रुटि इंगित करने के लिए आपका आभारी हूँ। इसे जल्द ही ठीक करता हूँ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2015 at 3:59pm

धन्यवाद  डॉ गोपाल नारायन जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2015 at 3:59pm

शुक्रिया Dr. Vijai Shanker  जी

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 2, 2015 at 3:55pm

वाह! बहुत उम्दा गजल. एक से बढ़कर एक, सामयिक शेर कहें है आदरणीय धर्मेन्द्र जी.

आ गई राजनीति जंगल में

जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं.....इस शेर पर विशेष बधाई

Comment by khursheed khairadi on March 2, 2015 at 2:56pm

आ गई राजनीति जंगल में

जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

 

देश का हाल न पूछो ‘सज्जन’

गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं

आदरणीय धर्मेंदर जी ,उम्दा और कसी  हुई ग़ज़ल हुई है ,ढेरों दाद कबूल फरमावें ,,,,यह सही मायने  में ज़दीद ग़ज़ल है |सादर अभिनन्दन | 

Comment by Nirmal Nadeem on March 2, 2015 at 2:53pm

Waaaah Waaaah bahut khooob... janab 

Maqte ka oola misara bahr me nahi hai ek baar dekh le......Shukriya

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 2, 2015 at 2:46pm

आ० धर्म जी

बाकमाल  रचना है i हर शेर कसा हुआ i दुरुस्त i वाह i सादर i

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