दिल में रहने वाले मुझसे नकाब क्यों ?
इतना मुझे बता दे मुझसे हिज़ाब क्यों?
साकीं यह सुना तू है मदिरा का सागर
लाखों को तूने तारा मुझको जवाब क्यों?
मेरे गुनाह लाखों होंगे ये मैंने है माना
गैरों से कुछ न पूछा मुझसे हिसाब क्यों?
तूने जिसको अपनाया उसको खुदा बनाया
उनका नसीब है अच्छा मेरा खराब क्यों?
छोटी सी ये हस्ती में है कुल कमाल तेरा
बेहद का है तू दरीया फिर मैं हुबाब क्यों?
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय इं. गणेश जी “बागी” सर रचना पर आपकी उपस्तिथि अपने आप में उत्साह बढ़ा देती है, सीखने का प्रयास कर रहा हूँ सर , आपके मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक टिपण्णी के लिए आपका हार्दिक आभार , सादर !
आदरणीय शिज्जु "शकूर" सर ,रचना पर उत्साहवर्धक टिपण्णी के लिए शुक्रिया, सादर ।
सोमेश भाई , आपका बहुत -बहुत धन्यवाद ! सादर
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर, वास्तव में मुझे इस विधा का विशेष ज्ञान नहीं है पर आपकी प्रतिक्रिया ने ने उत्साहित किया, आभार आपका ! सादर
भाई महर्षि त्रिपाठी जी ,बहुत बहुत धन्यवाद आपका ! सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई , संवाद बंद करने का सवाल ही नहीं है , दरअसल उस समय कार्यालय में था और अन्य रचनाओं को पढ़ रहा था , बीच -बीच में कुछ ख़लल भी पड़ रहा था ,सोचा , शाम को आराम से जाकर इस रचना पर चर्चा करूंगा आप सभी की बातों का संज्ञान था ,देरी हो गयी इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ , अब सच कहूं तो ग़ज़ल जैसे विषय पर मेरा बिलकुल भी अधिकार नहीं है ,बस अभी तक रदीफ़ और काफ़िया ही समझ पाया हूँ , इस रचना को एक बहाव मैं लिख गया , पर ग़ज़ल में बह्र और वज़न समझ नहीं पा रहा हूँ , जैसे
1212 1122 1212 22
मुफाइलुन फइलातुन मुफाइलुन फेलुन/फइलुन
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे भाई जी ग़ज़ल के प्रयास पर बधाई निवेदित है.........
विशेष निवेदन : इस रचना के हवाले से निवेदन करना चाहता हूँ, मंच की सीखने-सिखाने की परम्परा में सिखाने वाले तो आतुर नज़र आ रहे है मगर सीखने वाले पक्ष की प्रतीक्षा है. ....
आदरणीय बागी सर, गिरिराज सर, राजेश दीदी, शिज्जु भाई सभी ग़ज़ल और अरूज़ विषयक बेहतरीन मार्गदर्शन प्रदान करते है, अनुभव से कह रहा हूँ , आप रचना पोस्ट करने के उपरान्त संवाद बंद मत कीजिये भाई जी, आप प्रयासरत है किन्तु प्रयास का महत्वपूर्ण पक्ष मार्गदर्शन प्राप्त करना, अनदेखा मत कीजिये. शायद आपने बिना बह्र निश्चित किये, ग़ज़ल का प्रयास किया है तो गुनीजनों से इस्लाह करेंगे तो बह्र समझने में आसानी होगी. कुछ अधिक कह गया हूँ तो क्षमा चाहता हूँ, मगर क्या करूँ गुनीजनों की प्रतिक्रिया पर आपके द्वारा मंच पर उपस्थित होने और अन्य ब्लोग्स पर टिप्पणी करने के बावजूद, इस रचना पर प्रत्युत्तर नहीं दिया गया तो निवेदन करना पड़ा. इस ओर आदरणीया राजेश दीदी ने भी इशारा किया है.
शुभ शुभ
बहुत सुंदर गजल कही है आदरणीय हरिप्रकाश जी.
मेरे गुनाह लाखों होंगे ये मैंने है माना
गैरों से कुछ न पूछा मुझसे हिसाब क्यों?....यह शेर बहुत पसंद आया. विशेष बधाई स्वीकारें
मेरे गुनाह लाखों होंगे ये मैंने है माना
गैरों से कुछ न पूछा मुझसे हिसाब क्यों?
बहुत ही सुन्दर शेर ---क्या पूरी ग़ज़ल ही सुन्दर है पर बह्र को लेकर पाठक कुछ उलझ रहे हैं स्पष्ट कर दें तो आपका ही फायदा होगा गुणी जन सही मशविरा देंगे ,आपको हार्दिक बधाई सुन्दर प्रस्तुति पर
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , काफिया और रदीफ क लिहाज़ से बहुत सुन्दर गज़ल हुई है , बधाइयाँ स्वीकार करें । बह्र निभाने मे कुछ कमियाँ लग रहीं है , किस बहर मे आपके कोशिश की है अगर आप ऊपर लिख देते तो कुछ कहने में आसानी होती । कह चुके मिसरों से बहर निकालना मुश्किल काम है , हम जैसे सीखने वालों के लिये ॥
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