॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥
कहने से नहीं
समझाने से नहीं
कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे
कौन रोक सकता है
बातें
कर्तव्यों को छोड़
केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब
ज़हर धीमा हो अगर
अमृत तो नहीं कह सकते न
संस्कारों की भूमि में
रिश्ते दिनों से मानयें जायें
ये दिन , वो दिन
अफसोस होता है
पता नहीं क्यों
रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में
राधा-कृष्ण-मीरा को , सत्यवान-सावित्री को
कभी कभी लैला- मजनू , शीरी- फरहाद को भी
ऐसा न हो कि ये सारे दिन
रातों में बदल जायें
बदल भी रहे हैं कुछ के
तब आँख खुले
बहुत देर हो जाने के बाद
क्योंकि,
जब समय समझाता है, तब
हाथ आता है केवल और केवल
पछतावा ॥
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय गिरिराज सर इस बेहतरीन कविता हेतु हार्दिक बधाई
जब समय समझाता है, तब
हाथ आता है केवल और केवल
पछतावा ॥
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपके अनुमोदन से रचना धन्य हुई । आपका हार्दिक आभार ॥
क्योंकि,
जब समय समझाता है, तब
हाथ आता है केवल और केवल
पछतावा ॥-------------------------------मित्र / बहुत सुन्दर भाव i
आदरणीय नादिर खान भाई , रचना की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
कर्तव्यों को छोड़
केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब
ज़हर धीमा हो अगर
अमृत तो नहीं कह सकते न
संस्कारों की भूमि में
रिश्ते दिनों से मानयें जायें
ये दिन , वो दिन
अफसोस होता है
वाह गिरिराज जी निशब्द हूँ आपकी इस प्रस्तुति पर क्या कहने बहुत बहुत बधाई....
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