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“ हे. भगवान..बस! एक पोते की कामना थी,  वो भी पूरी नहीं हो पाई इस बार. तीन-तीन पोतियों की लाइन लग गई ” अपनी बहु के कमरे से बाहर, खले की ओर जाते हुए मन में बडबडा ही रही थी, कि

“ माँ!! मैं बाजार जा रहा हूँ, कुछ लाना हो बता दो ” बेटे ने पूछा

“ हाँ! बेटा.. गुड़ ले आना, वो बूढी गाय न जाने कब जन जाए, अब की बार बछिया ले आये तो आगे भी घर का दूध मिल जाया करेगा “

      जितेन्द्र पस्टारिया

   (मौलिक व् अप्रकाशित)    

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 8:09pm

सच कहा आपने ,आजकल लाभ के सिवाय कहीं कुछ सोचने की भी मानवता बाक़ी नही है आदरणीया छाया जी. लघुकथा पर आपकी उपस्थति व् सराहना हेतु आपका आभारी हूँ.

सादर!

Comment by Chhaya Shukla on February 5, 2015 at 7:45pm

आदरणीय सच्चाई परोस दी आपने
जब जहां से लाभ बस वही हो |
बाकी दया क्षमा मानवता जैसे देवी भाव का लोप हो चुका है |
आपने इस लघु कथा के माध्यम से समाज की सही तस्वीर खिंची है |
बधाई आपको !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 7:32pm

आपकी उपस्थिति व् सराहना हेतु आभारी हूँ , आदरणीय राम भाई.

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 7:28pm

आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका आभारी हूँ, आदरणीय अनुराग जी.

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 7:27pm

आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया व् लघुकथा की सराहना, हमेशा मनोबल को दो गुना कर देती है आदरणीया राजेश दीदी. स्नेहिल आशीर्वाद यूहीं बनाए रखियेगा.

सादर!

Comment by ram shiromani pathak on February 5, 2015 at 7:26pm
उम्दा भाव आदरणीय भाई।।बधाई आपको
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 7:22pm

आपकी प्रतिक्रिया रचना को सार्थकता प्रदान करती हैं आदरणीय हरिप्रकाश जी. आपका हार्दिक आभारी हूँ

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 7:19pm

लघुकथा पर आपकी सारगर्भित पंक्तियों हेतु आपका हार्दिक आभार, आदरणीया सविता जी

सादर!

Comment by Anurag Goel on February 5, 2015 at 5:35pm

दोगले जीवन कीस्वार्थपरता से ऊपर नहीं निकल प् रहे हम लोग. सुन्दर भाव बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2015 at 5:06pm

जो स्थति इंसानों में बालिकाओं  की है वो ही गाय के बछड़ों की है डेरी पर तो मेल बच्चे को दूध भी नहीं देते और वो इसी तरह भूखा मर जाता है इंसान सच में स्वार्थ में कितना अँधा हो गया है संवेदनाएं तो खत्म ही हो चुकी हैं ,इस  तुलनात्मक स्थिति को बखूबी अंजाम दिया है लघुकथा ने हार्दिक बधाई इस शानदार प्रस्तुति पर जीतेन्द्र भैया 

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