“ हे. भगवान..बस! एक पोते की कामना थी, वो भी पूरी नहीं हो पाई इस बार. तीन-तीन पोतियों की लाइन लग गई ” अपनी बहु के कमरे से बाहर, खले की ओर जाते हुए मन में बडबडा ही रही थी, कि
“ माँ!! मैं बाजार जा रहा हूँ, कुछ लाना हो बता दो ” बेटे ने पूछा
“ हाँ! बेटा.. गुड़ ले आना, वो बूढी गाय न जाने कब जन जाए, अब की बार बछिया ले आये तो आगे भी घर का दूध मिल जाया करेगा “
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
सच कहा आपने ,आजकल लाभ के सिवाय कहीं कुछ सोचने की भी मानवता बाक़ी नही है आदरणीया छाया जी. लघुकथा पर आपकी उपस्थति व् सराहना हेतु आपका आभारी हूँ.
सादर!
आदरणीय सच्चाई परोस दी आपने
जब जहां से लाभ बस वही हो |
बाकी दया क्षमा मानवता जैसे देवी भाव का लोप हो चुका है |
आपने इस लघु कथा के माध्यम से समाज की सही तस्वीर खिंची है |
बधाई आपको !
आपकी उपस्थिति व् सराहना हेतु आभारी हूँ , आदरणीय राम भाई.
सादर!
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका आभारी हूँ, आदरणीय अनुराग जी.
सादर!
आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया व् लघुकथा की सराहना, हमेशा मनोबल को दो गुना कर देती है आदरणीया राजेश दीदी. स्नेहिल आशीर्वाद यूहीं बनाए रखियेगा.
सादर!
आपकी प्रतिक्रिया रचना को सार्थकता प्रदान करती हैं आदरणीय हरिप्रकाश जी. आपका हार्दिक आभारी हूँ
सादर!
लघुकथा पर आपकी सारगर्भित पंक्तियों हेतु आपका हार्दिक आभार, आदरणीया सविता जी
सादर!
दोगले जीवन कीस्वार्थपरता से ऊपर नहीं निकल प् रहे हम लोग. सुन्दर भाव बधाई
जो स्थति इंसानों में बालिकाओं की है वो ही गाय के बछड़ों की है डेरी पर तो मेल बच्चे को दूध भी नहीं देते और वो इसी तरह भूखा मर जाता है इंसान सच में स्वार्थ में कितना अँधा हो गया है संवेदनाएं तो खत्म ही हो चुकी हैं ,इस तुलनात्मक स्थिति को बखूबी अंजाम दिया है लघुकथा ने हार्दिक बधाई इस शानदार प्रस्तुति पर जीतेन्द्र भैया
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