1222 1222 1222 1222
पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं
वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर
कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
चला आया है जुगनू देखिये फिर रोशनी ले कर
इसे तारीक़ हो गर बस्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं
ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों
मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये
कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
अगर हो ताब ,हो जिगरा तो बोलो ज़ोर से यारों
ये पीछे पीठ, कानाफूसियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है
"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
वाह वाह अनुज
क्या मतला और क्या मक्ता i जीवेत शरदः शतं i सादर i
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है दिली दाद कुबूल फरमायें |
आदरणीय मिथिलेश भाई , आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय सुशील सरना जी , आपकी मुक्त कंठ सराहना के लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।
आदरणीय उमेश भाई , ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीया प्रतिभा जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीया छाया जी , उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत आभार ।
आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन तरही ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकार करें .... इन दो अशआर पर दिल से दाद कुबूल फर्माये सर -
ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों
मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये
कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है
"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"
वाह आदरणीय गिरिराज भाई वाह … हर अशआर पे डूब के हम तो ऐ दोस्त .... आपको ,आपकी कलम को , आपके अहसासों को बंदा एक बार नहीं सौ बार सलाम करता है। हार्दिक हार्दिक बधाई इस सुंदर श्रेष्ठ प्रस्तुत ग़ज़ल पर।
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