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एक तरही ग़ज़ल - "हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं" ( गिरिराज भंडारी )

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पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं

कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं

वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके 

कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं

 

भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर

कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं 

चला आया है जुगनू देखिये फिर रोशनी ले कर

इसे तारीक़ हो गर बस्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं

ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों

मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये

कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

अगर हो ताब ,हो जिगरा तो बोलो ज़ोर से यारों

ये पीछे पीठ, कानाफूसियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है

"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"

************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 16, 2015 at 3:31pm

वाह वाह अनुज

क्या मतला और क्या मक्ता i  जीवेत शरदः शतं i सादर i

Comment by Shyam Narain Verma on January 16, 2015 at 1:47pm

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है दिली दाद कुबूल फरमायें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:20pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:19pm

आदरणीय सुशील सरना जी , आपकी मुक्त कंठ सराहना के  लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:17pm

आदरणीय उमेश भाई , ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:16pm

आदरणीय हरि प्रकाश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:15pm

आदरणीया प्रतिभा जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:14pm

आदरणीया छाया जी , उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 15, 2015 at 8:17pm

आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन तरही ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकार करें .... इन दो अशआर पर दिल से दाद कुबूल फर्माये सर -

ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों

मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये

कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं

Comment by Sushil Sarna on January 15, 2015 at 7:52pm

कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है
"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"

वाह आदरणीय गिरिराज भाई वाह … हर अशआर पे डूब के हम तो ऐ दोस्त .... आपको ,आपकी कलम को , आपके अहसासों को बंदा एक बार नहीं सौ बार सलाम करता है। हार्दिक हार्दिक बधाई इस सुंदर श्रेष्ठ प्रस्तुत ग़ज़ल पर।

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