कभी ठोकरों से सँभल गये
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11212 11212 11212 11212
न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये
मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये
तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को
कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये
कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना
कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये
कभी बिन पिये रही बेखुदी, कहीं लड़खड़ाये पिये बिना
कभी पी के भी रहे होश में, कभी ठोकरों से सँभल गये
कहीं छोड़ दी सभी कोशिशें, तो हवा की रौ ने बहा लिया
दिया हौसलों ने भी साथ जब, मेरे ख़्वाब सारे मचल गये
कभी ये पकड़ ,कभी वो पकड़, कभी जा इधर, कभी जा उधर
कभी तय हुये नहीं रास्ते , वो जो हाथ आये थे पल गये
कभी हादिसों ने रुलाया तो , कभी गमज़दों की पुकार ने
कभी बढ़ के दिल से लगा लिया, कभी आँसुओं से दहल गये
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदाणीय सोमेश भाई , आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।
आदरणीय खुर्शीद भाई , आपका मेरी गज़ल आना ही मेरा उत्साह वढा देता है , आपके स्नेह के लिये बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय विजय शंकर भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।
//मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे अब रास्ते, ही बदल गये//
यहाँ मैं भाई मिथिलेश जी से सहमत हूँ .
ग़ज़ल अच्छी लगी आदरणीय गिरिराज भाई साहब, अंतिम शेर का मिसरा उला देख लें, तकाबुले रदीफ़ दीख रहा है. इस ग़ज़ल पर बधाई आदरणीय.
आ. मिथिलेश वामनकर सर, कभी मौका मिला तो बोलकर सुनाऊंगा कि इस बहार की चाल क्या होती है
आ. गिरिराज भंडारीग़ज़ल अच्छी हुई हगे लेकिन इस बह्र के चाल की(मुआफी चाहता हूँ) जो आत्मा है उस तक कई जगहों पर ठीक से शायद आप पंहुच नहीं पाए. आप से बहुत सीखने की आशाएं हैं. ‘हकीम मोमिन’ की ‘’वो जो हममें तुममें ..’’ ग़ज़ल को कुछ देर गुनगुनाएं , बात सामने आ जायेगी
आदरणीय गिरिराज सर इस बह्र में आप कमाल लिखते है आनंद आ गया पढ़कर ... ढेर सारी बधाइयाँ....
मतले में
मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये..... मैं और वो दोनों मुड़े तो फिर मेरे ही रास्ते क्यों बदल रहे है ... रास्ते दोनों के बदले है ... दूसरा मेरे रास्ते... र-रा की टक्कर परेशां कर रही है .... दुई रास्ते, ही बदल वाला कुछ बदलाव हो जाए तो आनंद चौगुना हो जाएगा ... बाकी सभी अशआर बेहतरीन और उम्दा है .... मेरे फेवरेट
कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना
कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये
कभी हादिसों ने रुलाया तो , कभी गमज़दों की पुकार ने
कभी बढ़ के दिल से लगा लिया, कभी आँसुओं से दहल गये
न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये
मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये......बहुत ही सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी सर ! सादर
क्या बात है ! बहुत ही उम्दा गजल i बधाई होi
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