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शजर की हाय ही काफ़ी अगर बोला तो क्या होगा (ग़ज़ल 'राज')

1222  1222   1222  1222

नहीं होता तो क्या होता अगर होगा तो क्या होगा

कभी तुमने बचाया क्या अभी खोया तो क्या होगा

 

जमाने को सिखाया है हुनर तुमने यही अब तक

वफ़ा करके कभी खुद को मिले धोखा तो क्या होगा 

 

किसी की जिन्दगी में तुम उजाला कर नहीं सकते

अगर खुर्शीद भी दिन में न अब जागा तो क्या होगा 

 

चले हो आबशारों को जलाने आग से अपनी

समंदर ने तुम्हारा रास्ता रोका तो क्या होगा 

 

लिए वो हाथ में पत्थर कभी फेंका था जो तुमने 

तुम्हारा आईना दिल का  अगर टूटा तो क्या होगा 

 

बरी हो तुम भले  ही आज  अपने इन गुनाहों से

अदालत से ख़ुदा की फेंसला आया तो क्या होगा

 

बहुत बर्दाश्त करता है न कहता कुछ जुबाँ से वो

शजर की हाय ही काफ़ी अगर बोला तो क्या होगा

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by rajesh kumari on December 16, 2014 at 11:04am

मिथिलेश जी सच कहा ये  बड़ी मक़्बूल बह्र है मेरी पसंदीदा भी है|ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ आप जैसे ग़ज़लकार को इस ग़ज़ल ने पाठक के रूप में पाया तथा अशआर अपनी बात स्पष्ट रख सके, मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 15, 2014 at 11:28pm

नहीं होता तो क्या होता अगर होगा तो क्या होगा

कभी तुमने बचाया क्या अभी खोया तो क्या होगा

क्या बात है पढ़कर झूम गया हूँ ... बह्र-ए-हज़ज बड़ी ही मक़्बूल बहर है इस बह्र में काफ़ी ग़ज़ल भी कही गई है, मैंने इस बहर में बहुत लिखा है पर आपका ये कलाम ...क्या कहूँ बस झूम गया हूँ ..... इसे गुनगुनाने में वही आनंद आ रहा है  जो चचा ग़ालिब की ग़ज़ल को जगजीत सिंह जी की आवाज़ में सुनते हुए आता है ... बस कमाल ... बधाई क्या दूं ...नमन करता हूँ आपको 


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Comment by rajesh kumari on November 22, 2014 at 10:26am

प्रिय वन्दना,ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ ,मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ  शुभकामनायें. 

Comment by vandana on November 22, 2014 at 4:57am

किसी की जिन्दगी में तुम उजाला कर नहीं सकते

अगर खुर्शीद भी दिन में न अब जागा तो क्या होगा 

 

चले हो आबशारों को जलाने आग से अपनी

समंदर ने तुम्हारा रास्ता रोका तो क्या होगा

 

बहुत बर्दाश्त करता है न कहता कुछ जुबाँ से वो

शजर की हाय ही काफ़ी अगर बोला तो क्या होगा

वाह कमाल की ग़ज़ल आदरणीया 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 21, 2014 at 9:23pm

तहे दिल से आभार आ० मुकेश श्रीवास्तव जी |

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on November 21, 2014 at 10:19am

 

baut umdaa mitra -


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 20, 2014 at 7:15pm

हरि प्रकाश जी ,ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ ,तहे दिल से आभार आपको. 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 20, 2014 at 5:23pm

बरी हो तुम भले  ही आज  अपने इन गुनाहों से

अदालत से ख़ुदा की फेंसला आया तो क्या होगा....बहुत सुन्दर रचना ,आपको हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 19, 2014 at 8:41pm

बहुत- बहुत शुक्रिया आ० गुमनाम पिथौरागढ़ी जी 

Comment by gumnaam pithoragarhi on November 19, 2014 at 7:54pm

वाह क्या बात है ,,,

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