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लघुकथा : रुतबा (गणेश जी बागी)

संजना लाल सुर्ख जोड़े और गहनों में नयी दुल्हन सी लग रही थी, मुहल्ले की औरतों के साथ करवा चौथ की पूजा कर वो अभी घर लौटी ही थी कि उसकी सहेली रेशमा आ गयी।
"अरे वाह संजना, बड़ी सुन्दर लग रही है, तेरा प्यार भी गज़ब है, तीन साल से डाइवोर्स का केस चल रहा है, दो चार महीने में तुम्हे डायवोर्स भी मिल जाएगा फिर भी तुम राहुल की लम्बी उम्र के लिए करवा चौथ का व्रत रख रही हो !"
"ऐ.…… हलो !! राहूल ....... माय फूट !!" उस कमीने की लम्बी उम्र के लिए मैं व्रत रखूँगी ? मैं तो यह सोच कर व्रत कर लेती हूँ कि नये फैशन के गहने और कपड़े मुहल्ले की औरतें देख भी लेंगी और मेरा रूतबा भी बना रहेगा ।"

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट => लघुकथा : गुब्बारा

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Comment by Shyam Narain Verma on October 14, 2014 at 10:07am

सुंदर लघु कथा के लिए बधाई ..............................

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 13, 2014 at 11:04pm

एक और बेजोड़ लघुकथा पढने को मिली. न एक शब्द कम, न ज्यादा. और पूरा का पूरा चित्रण शब्दों की कसावट के साथ, आँखों के सामने. बहुत ही बेहतर लघुकथा, बहुत-बहुत बधाई आपको आदरणीय बागी जी

Comment by khursheed khairadi on October 13, 2014 at 10:19pm

आदरणीय बागी साहब आधुनिकता ने हमारे त्योहारों की सादगी को किस तरह डस  लिया है ,उसकी सटीक बानगी है |सादर अभिनन्दन |ढेरों बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 13, 2014 at 9:53pm

गज़ब है , इस सच्चाई को उजागर करने के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय इंजीo गणेश जी बागी जी।  

Comment by विनय कुमार on October 13, 2014 at 8:20pm

वाह , बहुत बढ़िया लघुकथा | आजकल त्यौहार लोग मनाते कम हैं , दिखाते ज्यादा हैं |

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