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देता है आवाजें रूक-रूक क्यों मेरी खामोशी को
थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को
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कब मागे मयखाने साकी अधरों ने उपहारों में
नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को
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देखेगी तो कर देगी फिर बदनामी वो तारों तक
अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को
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बेगानों की महफिल में तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों की महफिल में कैसे अपना लूँ बेहोशी को
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होते हो बेपर्दा खुद क्यों पलपल यूँ हंगामा कर
लोगों का क्या उनको जुटना यारो लज्जत पोशी को
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इनसे ही है रंगीं जीवन बिन इनके वीराना सब कुछ
रिश्ते-नातों को मत कह तू आते हैं खूँ-नोशी को
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हम आगोशी- आलिंगन
रूपोशी - पर्दा करना / मुँह छिपाना
लज्जत पोशी - रस लेना (तमाशा देखना)
(रचना - 31 जुलाई 2010 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई, भाईजी
आदरणीय भाई गिरिराज जी , शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई भुवन जी, उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आदरणीय भाई आशुतोष जी , गजल की प्रशंसा और शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई जितेन्द्र जी , गजल पर आपकी उपस्थिति से जो उत्साहवर्धन हुआ है उसके लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई विजय शंकर जी उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आदरणीया सविता जी गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई नीलेश जी, गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।
आदरणीय भाई संतलाल जी, गजल की प्रशंसा एवं शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई श्याम नरायन जी, गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
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