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दादी, हामिद और ईद (लघुकथा) // --सौरभ

हामिद अब बड़ा हो गया है. अच्छा कमाता है. ग़ल्फ़ में है न आजकल !

इस बार की ईद में हामिद वहीं से ’फूड-प्रोसेसर’ ले आया है, कुछ और बुढिया गयी अपनी दादी अमीना के लिए !

 

ममता में अघायी पगली की दोनों आँखें रह-रह कर गंगा-जमुना हुई जा रही हैं. बार-बार आशीषों से नवाज़ रही है बुढिया. अमीना को आजभी वो ईद खूब याद है जब हामिद उसके लिए ईदग़ाह के मेले से चिमटा मोल ले आया था. हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है.
".. कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं पड़ेगा.. जब हामिद वापस चला जायेगा, अपनी बहुरिया के साथ, अपने बेटे के साथ.. "
************************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 30, 2014 at 1:32pm

आदरणीय सौरभ जी

प्रेमचंद के कालजयी चरित्र  को आपने आधुनिक संदर्भो में रूपायित किया  i हम बचपन से जब अपने वर्तमान की तुलना करते है तो हमें भी यही लगता है बचपन वस्तुतः कितना निश्छल होता है  i हम वय  की परिपक्वता पाकर सयाने और धूर्त हो जाते है i मेरे इस कथन का आपकी संवेदंशील लघुकथा  से कोई संबंध  नहीं है i पर आपने हामिद का चयनकर  इसकथा को अधिकाधिक मार्मिक बना दिया है i मै तो बस यही कहूंगा -- हामिद सचमुच बड़ा हो गया है  i पर  मै अमीना को भी सलाम करता हूँ  i   साथ ही आपकी कलम को भी ----i सादर i

Comment by harivallabh sharma on July 30, 2014 at 12:56pm

समय के अनुरूप चेतनाएं बदलती हैं...हामिद अब आधुनिक युग में प्रवेश कर नए मित्र  नवीन वातावरण  में प्रविष्ट हुआ है..जब उसके लिए चिमटा खरीदना भी भारी था ..जो बच्चे ने अपना मन मार कर कुर्वान किये थे..उसकी तुलना में फ़ूड प्रोसेसर कुछ नहीं..इस यथार्थ को दादी अमीना भी जान  चुकी है...बहुत सामयिक परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती श्रेष्ठ लघु कथा ..आदरणीय.


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Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 12:48pm

आदरणीय आशुतोषभाई, आपकी स्पष्टवादिता ने मुझे ही हिला कर रख दिया है. मेरी आँखें नम हैं.. ना ना, आपने मुझे पूरा रुला दिया, मित्रवर. जिस तथ्य को आपने यों बेलाग कहा है, वस्तुतः यही इस कथा का हेतु है.

आज अर्थोपार्जन में लगे बहुसंख्यक तथाकथित उच्च या मध्यम मध्यमवर्गीय (एकल) परिवारों की पहली पीढ़ी या अधिक-से-अधिक दूसरी पीढ़ी कमोबेश उसी परिवेश से आयी है, जिस परिवेश में इस कथा का नायक हामिद हुआ करता था. पारिवारिक रूप से तनिक आगे-पीछे हो भी सकता है, परन्तु सामाजिक रूप से बहुसंख्यकों का ठीक वही परिवेश रहा है. और, विडम्बना देखिये कि आज ऐसे बहुसंख्यक नायकों की दादियाँ, माएँ, चाचियाँ, पिता-दादा-स्नेहीजन दीर्घ प्रतीक्षापलों में निस्संग का एकाकी जीवन गुजारते हुए अपने उन लालों तथा उनके नन्हें छौनों के संग उनकी सहधर्मिणियों को कुछ दिन, कुछ हफ़्तों या कुछ महीनों के लिए अपने बीच पा निहाल हो उठने को विवश हैं, जबतक कि उनके लिए तुलसीपत्र और गंगाजल की घड़ी न आ जाये.

इस कथा के भावपक्ष से व्यक्तिगत तौर पर स्वयं को उकीर्ण करने के लिए सादर आभार.

Comment by coontee mukerji on July 30, 2014 at 12:43pm

समय कितना बदल गया है.....प्रेमचंद की ईदगाह से लेकर सौरभ जी की लघुकथा.. कितने लम्बे समय को दर्शाता है....... बात सच है आज भी तो गाँवों कस्बों में हामिद और अमीना बसे हुए है.... अगर कुछ बदला है तो सिर्फ़ चिमटा.....बहुत ही रोचक ढंग से एक अत्यन्त संवेदनशील घटना को देशकाल के अंतरगत दर्शाया गया है........साधुवाद सौरभ जी.

Comment by Ravi Prabhakar on July 30, 2014 at 12:23pm

श्रद्धेय सौरभ भाई जी,
आपकी लघुकथा पर सुधिजन बहुत कुछ कह चुके है। मैं तो केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि अपने पहले ही टेस्ट मैच में आपने दोहरा शतक जड़ दिया है। यदि आज मुंशी प्रेमचंद जी जिंदा होते तो उन्हे भी आपकी रचना पर बहुत गर्व महसूस होता। बहुत बहुत शुभकामनाएं।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 12:21pm

इस प्रस्तुति का कथ्य-संप्रेषण, शब्द-संयोजन, बिम्बात्मक इंगित, शिल्पगत प्रामाणिकता तथा कथासूत्र के आलोक में आप द्वारा हुआ अनुमोदन मेरे लिए कितना मायने रखता है, इसका भान आपको भी है, आदरणीय योगराजभाईसाहब.

मैं आपको कतिपय साहित्यिक-विधाओं में सिद्धहस्त मानता हूँ. उनमें लघुकथा की विधा सर्वोपरि है. आपने अपनी इस टिप्पणी के माध्यम से इस तथ्य को जिस स्पष्टता से रेखांकित किया है, वह मेरी लघुकथा को मात्र अनुमोदित करने से आगे, वस्तुतः लघुकथा की विधा को व्याख्यायित करता है.
कथासूत्र की बारीकियों तथा कथा-विन्यास के ताने-बाने को जिस गुरुतर सहजता से आपने शब्दबद्ध किया है, आदरणीय, वह मुझ जैसों के लिए मार्गदर्शन है. यह बात मेरे लिए और भी प्रासंगिक हो जाती है कि यह प्रस्तुति  इस विधा में मेरी पहली रचना है.

आपको मेरा प्रयास तार्किक, सार्थक तथा रुचिकर लगा है, आदरणीय, मेरा उत्साह दूना हुआ है. इस कथा के सापेक्ष इस सम्मान तथा विन्दुवत मार्गदर्शन के लिए सादर धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ.  
सादर

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 30, 2014 at 12:21pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ,
आपकी लघु कथा बहुत अपील करने वाली तो है ही , अपने आप में एक नवीन तरह का प्रयोग भी है जो बहुत ही सराहनीय है . लघु कथा के प्रारंभिक बिंदु के विषय में मैं आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ पर ये दृष्टि हैं न , वह विविधताओं की ओर चली ही जाती है , शायद यह उसका स्वाभाविक गुण है .
पुनः एक बार आपको बहुत बहुत बधाई . आपके इस नवप्रयोग का तेजी से अनुसरण होगा , देखियेगा. सादर .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 12:06pm

भाई जितेन्द्रजी, आपका अनुमोदन मेरे लिए भी मायने रखता है. हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 12:05pm

//ये तो अच्छा हुआ के फ़ूड प्रोसेसर वो खुद लाके दिया ईद में , वहीं से भिजवा ही देता तो क्या कर लेते , एक ख़त लिख देता इस ईद में नहीं आ पा रहा हूँ | अभी भी पुराने हामिद में कुछ पुरानी बातें बाकी हैं |//

यह अवश्य है कि उपरोक्त पंक्तियों का लेखक / टिप्पणीकार प्रस्तुत लघुकथा के रेशे-रेशे से भावमय हुआ है. आदरणीय गिरिराजभाई, आपने स्पष्ट शब्दों में वो बात कही है जो इस लघुकथा के ’होने’ का अर्थ बताती है. हृदयतल से हार्दिक धन्यवाद आदरणीय.

आपको एक सूचना दूँ, कि मेरी यह लघुकथा इस विधा में प्रस्तुत हुई कोई पहली रचना है. अतः आप द्वारा कथा के मर्म को अभिव्यक्त करना मुझे भी आश्वस्त कर रहा है.

सादर धन्यवाद


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Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 12:00pm

आदरणीया राजेशकुमारीजी, आपने प्रस्तुत कथा के मर्म को शब्दबद्ध कर मुझे असीम सुख दिया है. आपके अनुमोदन और इस उत्साहवर्द्धन के लिए बहुत-बहुत आभारी हूँ.

सादर

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