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मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने - ग़ज़ल

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जनम से आदमी हो, आदमी क्यों हो नहीं पाया
कि नफरत से भरे दिल में मुहब्बत बो नहीं पाया
***
सितारे तोड़ डाले सब, करम उसका यही है बस
खता मेरी रही इतनी कि जुगनू हो नहीं पाया
***
मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने
उसी का गम जिगर को है जमाने जो नहीं पाया
***
तुझे क्यों खांसना उसका दिनों में भी अखरता है
पिता जो तेरे बचपन में भरी शब सो नहीं पाया
***
न जाने कौन सी कालिख कहाँ से पोत लाए तुम
जनम गुजरा मगर मैं भी इसे सच धो नहीं पाया
***
‘मुसाफिर’ जिंदगी उसकी बता कैसी रही होगी
हँसी दुख में नहीं आई खुशी में रो नहीं पाया
***
( रचना -१८ मई २०१४ )
***
( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 1:02pm

मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने
उसी का गम जिगर को है जमाने जो नहीं पाया...........bahut बहुत खूब,

तुझे क्यों खांसना उसका दिनों में भी अखरता है
पिता जो तेरे बचपन में भरी शब सो नहीं पाया...........मन को झकझोड़  देता हुआ शेर

बधाई आदरणीय लक्ष्मण  जी

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