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देह-भाव : पाँच भाव-शब्द // --सौरभ

१.
चिलचिलाती धूप सिखाती है
प्रेम करना..
तबतक वन
महुआ-पलाशों में बस
उलझा रहता है.

२.
तुम्हारी उंगलियों ने दबा कर मेरी हथेलियों को
जो कुछ कहा था उस दफ़े..
मेरा आकाश
बस वही बरतता है,
आजतक.

३.
अधरों का ज्वालामुखी जब-जब सक्रिय होता है
सोखने लग जाता है खौलती झील..
लावा उगलने के लिए !

४.
अनुभवहीनता
उत्कट निवेदन की सान्द्रता को अक्सर
विरल कर देती है.

५.
उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !
काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !

**********
-सौरभ
**********
(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 5, 2014 at 10:51pm

आदरणीय सौरभ जी 

पाँच भाव चित्र और पाँचों बहुत सुन्दर.. एक एक चित्र एक गाथा है 

चिलचिलाती धूप सिखाती है
प्रेम करना...................................बहुत ही मनोवैज्ञानिक तथ्य है 

मेरा आकाश 
बस वही बरतता है, 
आजतक..................................ओह! खूबसूरत 

अनुभवहीनता
उत्कट निवेदन की सान्द्रता को अक्सर
विरल कर देती है.............................सही.

उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !
काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !..............................जैसे कोई ग़ज़ल का सा नशा हो इस भाव चित्र में, अद्भुत 

इस अभिव्यक्ति पर हृदय से बधाई आदरणीय 

सादर.

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on May 3, 2014 at 8:29pm

आदरणीय सौरभ भाईजी,

पाँच भाव ..... हर भाव क्रमशः मुखर से मुखरतम होती गई , मन के भाव ही बहिर्मुखी होकर देह भाव बनती गई।

अनुभवहीनता
उत्कट निवेदन की सान्द्रता को अक्सर
विरल कर देती है.,,,,,,,,  सच ही कहा ......अनुभवहीनता और संकोच दोनों का प्रभाव है 

५.

उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !

काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम ! ........ बहुत सुंदर आदरणीय ......... अच्छा ही है कि वर्णमाला नहीं है वरना निजता ही खत्म हो जाती और भावों की गहराई उथली हो जाती ,  " खास " की जगह आम हो जाती

देह भाव की सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति पर हृदय से बधाई  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2014 at 12:19am

आपके मुखर अनुमोदन केलिए सादर धन्यवाद, आदरणीय अशोकजी.

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 2, 2014 at 10:05pm

आदरणीय सौरभ जी सादर, हाँ इस  प्रस्तुत रचना का "देह भाव : पाँच भाव-शब्द" ही सार्थक शीर्षक है. प्रत्येक क्षणिका में प्रस्तुत देह भाव को पाठक आसानी से महसूस कर उस सुख की अनुभूति पा रहा है.हर क्षणिका की अपनी विशेषता है, मुझे प्रथम और अंतिम क्षणिका ने बहुत ही आनंदित किया. इस भावपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति पर दिली बधाई स्वीकारें. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 1, 2014 at 12:58pm

आदरणीय धर्मेन्द्रजी,
यह नहीं कि प्रत्येक भाव-शब्द के तुर्की-ब-तुर्की आपके शेर आये हैं, बल्कि क्या खूब शेर आये हैं ! निहितार्थों के सापेक्ष प्रत्येक भाव-शब्द के निहितार्थों के पूरक ! मानों पारस्परिक सत्ता को आत्मीयता से समायोजित कर लिया है इन्होंने !

आपके शेरों की गहनता, उनके माध्यम से भाव-शब्दों के निहितार्थ का मुखर उद्बोधन मेरी इस प्रस्तुति के प्रति आपकी अनन्य संलग्नता ही नहीं बल्कि, सही कहूँ तो, पाठकीय स्तर पर इन भाव-शब्दों को जी पाने की आपकी अदम्य इच्छा संप्रेषित हुई है. पाठकीयता का इतना सुन्दर सहभाव किसी-किसी प्रस्तुति के लिए ही उपलब्धि हो सकती है.

बहुत दिनों बाद किसी प्रस्तुति को ऐसे पढ़ते हुए देख रहा हूँ आपको और रोमांचित हो रहा हूँ.

विश्वास है, आपका यह पाठक स्वरूप आगे भी अपनी यात्रा जारी रखेगा तथा इस मंच को लाभान्वित करता रहेगा.

सादर आभार आदरणीय

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2014 at 10:19am

आदरणीय सौरभ जी, इन पाँच छोटी कविताओं में मैं आपकी भावनाओं का सबसे सान्द्र और सबसे मुखर रूप देख रहा हूँ। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। आपकी हर कविता पर मेरा एक शे’र अर्पित...

१.
चिलचिलाती धूप सिखाती है
प्रेम करना..
तबतक वन
महुआ-पलाशों में बस
उलझा रहता है.

प्यार शबनम से इसे जबसे हुआ है

यूँ लगे मोती जड़ी है धूप ‘सज्जन’


२.
तुम्हारी उंगलियों ने दबा कर मेरी हथेलियों को
जो कुछ कहा था उस दफ़े..
मेरा आकाश
बस वही बरतता है,
आजतक.

चंदा तारे बन रातों में नभ को जाती हैं

सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं


३.
अधरों का ज्वालामुखी जब-जब सक्रिय होता है
सोखने लग जाता है खौलती झील..
लावा उगलने के लिए !


ठहर! कल झील निकलेगी इसी से

निकलने दे अगन ज्वालामुखी से


४.
अनुभवहीनता
उत्कट निवेदन की सान्द्रता को अक्सर
विरल कर देती है.

आशिक ताक रहे दिल थामे लेकिन जरा सलीके से

हाल-ए-दिल उससे कह पाना सबके बस की बात नहीं


५.
उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !
काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !

दिल की मस्जिद में जिसे रोज पढ़ा करता हूँ

आयतें काश वो तुझको भी सुना पाता मैं


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2014 at 11:18pm

प्रस्तुति पर आपकी इतनी मुखर अभिव्यक्ति उत्साहित कर रही है, आदरणीया राजेश कुमारीजी.

हृदय से धन्यवाद

//प्रेम एक अनुभूति है जिसको किसी वर्णमाला की आवश्यकता नहीं होती //

जी, इसी तथ्य को अन्योक्तिके माध्यम से कहा गया है.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 30, 2014 at 10:32pm

प्रेमाभिव्यक्ति के पांच देह भाव--पांच क्षणिकाएँ .....अद्दभुत ...इस विषय पर जहाँ ग्रन्थ के ग्रन्थ भी कम पड़ जाते हैं उस सार को आपने इन पांच क्षणिकाओं में समेट रखा है बहुत खूब. मैं तो बस इतना कहूँगी कि देह को एक  माध्यम बनाया है प्रभु ने प्रेम प्रकटीकरण का. जिसमे एक दूसरे की भावनाओं का सम्मिश्रण होता है प्रेम में.  पावनता ,निश्छलता ,त्याग ही प्रेम की सही परिभाषा निर्धारित करते हैं. इसमें समाहित रहस्यों की असंख्य परतें हैं. भावनाएं जिनमें मुख्य हैं जिसने प्रेम में उनकी कद्र की. वही सम्पूर्ण प्रेम पा सका (आपके चौथे बंद के भाव इसी और ईशारा करते हैं ) इन्हीं भावनाओं को आपने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम दिखाया है. प्रेम एक अनुभूति है जिसको किसी वर्णमाला की आवश्यकता नहीं होती .आपको बहुत- बहुत बधाई इस विशेष प्रस्तुति के लिए.आ० सौरभ जी. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2014 at 11:56am

प्रेम की भावना सर्वसमाही वृत्तियों का अत्यंत कमनीय परिणाम है. और प्रत्येक भावोद्गार की तरह इसका भी संप्रेषण भौतिक इकाइयों द्वारा ही संभव है, मनुष्येतर भी ! इस भावना के माधुर्य और लालित्य को मानवीय कायिकता के सापेक्ष सबसे अधिक स्वर मिला है. प्रस्तुत अभिव्यक्ति में साहचर्य के इस अद्भुत निवेदन को पाँच मानवीय-कायिक तदनुरूप पाँच पारिस्थितिक मनोभावों में समेटने का प्रयास हुआ है.
आपको प्रयास सार्थक लगा, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.

Comment by coontee mukerji on April 30, 2014 at 1:15am

मन की कोमल भावनाओं को खासकर इंसान जब दुसरे की भावनाओं को अपने में आत्मसात कर उसे व्यक्त करने की कोशिश करता है तो   सतत भावनाओं के सागर में डूबता चला जाता है....प्रेम एक ऐसी भावना है जिससे आज तक कोई भी अछूता  नहीं रह पाया है......आपकी इन पक्तियाँ में कितनी सम्वेदनाएँ  भरी हुई है......

तुम्हारी उंगलियों ने दबा कर मेरी हथेलियों को
जो कुछ कहा था उस दफ़े..
मेरा आकाश
बस वही बरतता है,
आजतक.

या

उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !

काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !.......अनेक साधुवाद.

सादर.

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