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दुनियादारी (लघुकथा)


एक बार में ट्रेन में पुणे से मथुरा आ रहा था
जैसा की ज्यादातर यात्री करते हैं हम कुछ लोग भी एक मुद्दे पे बातचीत करके अपना समय काटने की कोशिश कर रहे थे
बात चल रही थी कश्मीर के हालातों पर .सब कश्मीर मुद्दे पे अपनी राय एक दूसरे को बता रहे थे
जैसा की हमेशा होता है मेरी राय ओरों से कुछ अलग ही थी और लोग उसपे सहमती नहीं दिखा रहे थे
मेरी बातें सुनकर ऊपर के बर्थ पे लेटे एक बुजुर्ग ऐसे नीचे उतर पड़े जैसे मैंने उनपर कोई व्यक्तिगत टिपण्णी कर दी हो
फिर क्या था बहस वाजी का सिलसिला चल पड़ा
वो अपनी रूडिवादी और भावनात्मक सोच मुझ पर थोपने की कोशिश करते रहे और में अपने विचारों से कुछ नतीजा निकालने की कोशिश करता रहा
मगर कोई समझोता होता न देख मैंने साइड में होना पसंद किया
तभी कुछ भीख मांगने वाले उधर से निकले
एक करीब ५ साल का लड़का अपने से काफी बड़े युवक के साथ हाथ फेलाए मेरे सामने आकर खड़ा हो गया
में जेब से कुछ सिक्के निकाल ही रहा था के मेरी नज़र दोनों पे पड़ी
वो दो लोग जो एक ही काम करते हैं, एक ही परिस्तिथि से जूज रहे हैं, पर एक से बिलकुल नहीं लग रहे थे
वो बड़ा युवक बड़ी गंबीर मुद्रा में खड़ा था उसके चहरे से ही उसकी हालत का पता लग रहा था, उसको देखकर लग रहा था के वो कितना मजबूर है
पर उसके बराबर खड़ा वो ५  साल का बालक, उसे देखकर लगता था के शायद ही उसे पता हो के वो क्या कर रहा है, वो सब जो वो कर रहा था उसके लिए खेल समान प्रतीत हो रहा था
उसके माथे पे चिंता की कोई लकीर न थी, उसे जीवन से कोई उम्मीद न थी, वो मस्त हवाओं सा प्रतीत हो रहा था जैसे परिस्तिथियों का साथ दे रहा हो
उस दिन मुझे ख्याल आया के यही अंतर है जीवन जीने में और जीवन हो जाने में
में सोच रहा था के काश मुझ में वो बच्चों जैसी मासूमियत और सरलता वापस आ जाये जो में महत्वाकान्षाओं की दोड़ में कहीं पीछे छोड़ आया
पास हो रही चर्चा से बेखबर में इसी ख्याल में खोया हुआ था
तभी मैंने बातचीत में सम्मलित एक शख्स को मेरी तरफ इशारा करते हुए सुना " ये अभी बच्चे हैं, ये क्या जाने दुनियादारी के बारे में ! "
उन्होंने शायद सोचा होगा के में कोई आक्रामक प्रातक्रिया दूंगा मगर मेरे मुंह से मुस्कुराते हुए अनायास ही निकल पड़ा " थेंक यू !"

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