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कहानी : कटहल के पेड़ की आत्मकथा

(१)

जब मैंने होश सँभाला तो मेरी और राजू की लंबाई बराबर थी। मुझे आँगन के बीचोबीच राजू के दादाजी ने लगाया था। राजू के पिताजी अपने सभी भाइयों में सबसे बड़े हैं। पिछले पंद्रह वर्षों से घर में कोई छोटा बच्चा नहीं था। ऐसे में जब राजू का जन्म हुआ तो वह स्वाभाविक रूप से परिवार में सबका दुलारा बन गया, विशेषकर अपने दादाजी का। राजू की देखा देखी मैं भी उसके दादाजी को दादाजी कहने लगा। मेरे बारे में लोगों की अलग अलग राय थी। कुछ कहते थे कि आँगन में कटहल का पेड़ होना शुभ नहीं होता। कुछ कहते थे कि मुझमें कभी फल नहीं लगेंगे क्योंकि मेरे पत्तों का आकार अजीब सा है। मेरे पत्तों का आकार आँगन के कोने में लगे पपीते के पत्तों जैसा था। राजू मेरे पत्तों को देखकर अक्सर कहता था कि मुझमें कुछ अलग तरह के फल लगेंगे जिनको देखने एक दिन दूर दूर से लोग आया करेंगे।

एक दिन राजू के छोटे भाई ने मेरी कुछ पत्तियाँ नोच लीं। मुझे बहुत दर्द हुआ और खून भी निकला। राजू को अपने छोटे भाई पर बहुत गुस्सा आया। वो अपने छोटे भाई को पीटने ही जा रहा था कि दादाजी ने उसे रोक लिया। वो बोले, "राजू! तुम्हारा भाई तो अभी बच्चा है। उसे क्या मालूम उसने क्या कर दिया। हम बड़े लोगों को ही तब तक इस पेड़ की रक्षा करनी पड़ेगी जब तक कि ये लंबा और मजबूत नहीं हो जाता। इसे जानवरों और बच्चों से बचाने के लिए इसके चारों तरफ ईंटों का थाला (ईंटों को गोल घेरे में इस तरह लगाना कि दो इंटों के बीच कुछ जगह बची रहे) बनाना पड़ेगा।"

इसके बाद राजू और उसके दादाजी ने मिलकर मेरे चारों तरफ ईंटों का थाला बना दिया। इससे मुझे हवा और धूप तो पर्याप्त मात्रा में मिलते रहे लेकिन अब जानवर और बच्चे मुझ तक नहीं पहुँच पाते थे। ईंटों की सुरक्षा में मैं धीरे धीरे बड़ा होने लगा। मेरी पुरानी पत्तियाँ झड़ने लगीं और नई पत्तियाँ निकलने लगीं। नई पत्तियों का आकार बिल्कुल कटहल की पत्तियों जैसा था। राजू का वो सपना टूट गया कि मैं कटहल के दूसरे पेड़ों से अलग हूँ और मुझमें कुछ अलग तरह के फल आयेंगे। बढ़ते बढ़ते एक दिन मैं बच्चों और जानवरों की पहुँच से बाहर हो गया। मेरे चारों तरफ से ईंटें हटा ली गईं।

राजू और उसके दादाजी का प्यार पाकर मैं दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ने लगा। किंतु रफ़्तार के अपने ख़तरे हैं। जिस तेजी से मैं बढ़ रहा था उस तेजी से आँगन की जमीन में मुझे पोषक तत्व नहीं मिल पा रहे थे। आखिकार वही हुआ जिसका डर था। धीरे धीरे मेरी एक डाल सूखने लगी। दादाजी ने सोचा कि पानी न मिलने की वजह से मेरी डाल सूख रही है। उस दिन से दादाजी मेरे चारों तरफ एक फुट गहरा गढ्ढा बनाकर रोज सुबह नियम से उसको पानी से भरने लगे। लेकिन एक सप्ताह बाद एक और डाल सूखने लगी। अब दादाजी चिंतित हुये। मैं सूख रहा था जबकि आस पड़ोस के सारे पेड़ हरे भरे थे। अगर मैं बोल पाता तो दादाजी को बताता कि मुझे पोषक तत्व सही मात्रा में नहीं मिल रहे हैं। दादाजी के लिए मेरे सूखने का कारण जान पाना असंभव था। इस तरह मेरी डालें एक के बाद एक सूखती रहीं।

एक दिन दादाजी के एक मित्र आये। वो सन्यासी हो चुके थे और यूँ ही जब जहाँ मन किया निकल पड़ते थे। तीन-चार साल में एकाध बार उनका फेरा इधर भी लगता था। वो दादाजी को अपनी यात्राओं के किस्से सुनाया करते थे। कभी केदारनाथ, कभी बद्रीनाथ तो कभी रामेश्वरम, उनकी यात्रायें चलती ही रहती थीं। मुझे देखकर उन्होंने कहा कि इस पेड़ पर ब्रह्मराक्षस का साया पड़ गया है। ये सुनकर मुझे हँसी आ गई लेकिन राजू, जो उस समय तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था, बुरी तरह डर गया।

दादाजी राजू का चेहरा देखकर हँसते हुये बोले, “चिंता मत करो ब्रह्मराक्षस बच्चों को कुछ नहीं कहता क्योंकि बच्चों में भगवान रहते हैं।"

सन्यासी जी ने बताया कि इस पेड़ की जड़ में ढेर सारी मछलियों की बलि दे दी जाये और उनके सर तथा हड्डियाँ इसकी जड़ में गाड़ दी जायँ तो ये बच सकता है। राजू के घर बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन महीने दो महीने में एकाध बार मछली जरूर पकती थी। सन्यासी जी के कहने के बाद दादाजी सप्ताह में तीन दिन मछली लाने लगे। मछलियों के सर को काटकर वो उसे मेरी जड़ के पास की मिट्टी में दबा देते थे और बाकी की मछली सब लोग पकाकर खा जाते थे। सन्यासी जी का बताया हुआ नुस्खा काम कर गया। मछलियों के शरीर में उपस्थित पोषक तत्व मेरी जड़ों को मिलने लगे। जो डालें पहले से सूख रही थीं वो तो सूखती रहीं पर उसके बाद और कोई डाल नहीं सूखी। तीन चार महीने बाद जब सूखी हुई डालें गिर गईं तो उनकी जगह पर नई कोंपलें फूटने लगीं और इस तरह मैं मरते मरते बच गया।

(२)

धीरे धीरे दो साल और बीत गये। यूँ तो मैं चाहता था कि जल्द से जल्द राजू को अपने फल खिलाऊँ लेकिन आँगन की जमीन में उपस्थित सीमित पोषक तत्व मेरी अपनी वृद्धि में ही खर्च हो जाते थे। ज्यादा पोषक तत्वों की खोज में मैं अपनी जड़ों को दूर दूर तक फैलाने की कोशिश कर रहा था किंतु बिना फल के कटहल का पेड़, वो भी आँगन में, किस काम का। सब कहने लगे कि इसे कटवा दिया जाय, बेकार में इसने आँगन में जगह घेर रखी है। पर दादाजी ने कहा कि ये पेड़ नहीं कटवाया जायगा। फल नहीं लगते तो क्या हुआ गर्मियों की दोपहर में हम इसके नीचे चारपाई बिछाकर बैठते हैं तो ये कितनी ठंडी हवा देता है और सावन में घर की लड़कियाँ तो लड़कियाँ औरतें भी इस पर झूला डालकर झूलती हैं। कटहल की तो लकड़ी भी बड़ी कमजोर होती है नहीं तो इसे कटवाकर कोई फ़र्नीचर वगैरह ही बनवा लेते। जलाने के लिए तो हमारे पास पहले से ही इतनी लकड़ी है। बहरहाल घंटे दो घंटे के वाद विवाद के बाद मुझे काटने का विचार त्याग दिया गया।

कुछ समय बाद हमारे घर फिर से सन्यासी जी का आगमन हुआ। उन्हें कटहल के पेड़ में फल न लगने वाली बात बताई गई तो उन्होंने कहा, "लगता है ब्रह्मराक्षस अभी पूरी तरह से भागा नहीं है। ऐसा करो कि इसके तने में जड़ के पास आठ लोहे की कीलें एक ही उँचाई पर चारों ओर से गोलाई में ठोंक दो। फिर देखना ये कैसे फल देना शुरू करता है।"

राजू ने फौरन हथौड़ी और कीलें उठाईं तथा मेरे तने में सन्यासी जी के कथनानुसार ठोंक दी। राजू ने जो कीलें तने में ठोंकी उससे मेरी कई ऐसी नलिकाएँ नष्ट हो गईं जो पत्तियों द्वारा बनाये भोजन को पत्तियों से बाकी अंगों तक ले जाती हैं। इस तरह मेरी जड़ों तक जाने वाले भोजन की मात्रा में कमी आ गई और बचा हुआ भोजन मुझे मजबूरन फल बनाने में लगाना पड़ा। सात महीने बाद मुझमें पहला फल लगा। राजू ने सबको बुलाया और उँगली से दिखाने लगा कि देखो वहाँ कटहल का पहला फल लगा है। तभी दादाजी आये और उन्होंने राजू को रोककर कहा कि अभी तो फल बहुत छोटा है, उसकी तरफ उँगली उठाओगे तो सूख जायेगा। राजू ने चुपचाप अपनी उँगली नीचे कर ली।

धीरे धीरे मुझमें कुल पाँच फल लगे। एक तो लगने के कुछ दिन बाद ही सूख कर गिर गया। एक को किसी पक्षी ने कुतर दिया और धीरे धीरे वो भी सूख गया। एक फल जो काफी नीचे लगा था जब कुछ बड़ा हुआ तो राजू की मम्मी ने उसे तोड़ कर सब्ज़ी बना डाली। राजू को थोड़ा गुस्सा आया कि उसकी मम्मी ने फल को पकने नहीं दिया, कच्चा ही तोड़ लिया, पर सब्ज़ी बड़ी मज़ेदार बनी थी जिसे खाकर राजू अपनी मम्मी से लड़ना भूल गया। बाकी दोनों फल बहुत ज्यादा बड़े नहीं हुये। कटहल का सामान्य फल जितना बड़ा होता है उसके तीन चौथाई आकार के हुए। फल के भीतर के कोये भी ज्यादा बड़े नहीं थे पर इतने मीठे थे कि पाँच सात कोये खाकर लोगों मन भर जाता था। उससे अगले साल चौदह पंद्रह फल लगे। उसके बाद वाले वर्ष में तो मैं फलों से लद गया क्योंकि मेरी जड़ें दूर तक फैल चुकी थीं और मुझे पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व मिलने लगे थे। अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार सबके यहाँ राजू के दादाजी मेरे कच्चे और पक्के फल भिजवाने लगे।

(३)

समय गुजरता गया। राजू के साथ साथ मैं भी बढ़ता गया। अब राजू को पढ़ने के लिए शहर जाना था। पहली बार मुझे लगा कि दादाजी के भीतर दो दादाजी रहते हैं। एक दादाजी चाहते थे कि राजू उनके साथ रहकर वहीं कस्बे के ही कॉलेज से आगे की पढ़ाई करे लेकिन दूसरे दादाजी चाहते थे कि राजू घर से बाहर निकलकर अपनी जमीन और अपना आसमान तलाश करे। आखिरकार राजू संयुक्त प्रवेश परीक्षा में चुन लिया गया और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रौद्योगिकी में स्नातक की पढ़ाई करने के लिए बनारस चला गया। अब होली, दीवाली और दशहरे में ही राजू से मिलना हो पाता था या फिर गर्मी की छुट्टियों में।

राजू के पड़दादा की मृत्यु के बाद राजू के पिता और चाचाओं ने मिलकर अलग होने का निर्णय लिया। राजू के छोटे दादा गाँव में रहते थे और खेती बाड़ी करते थे। कुछ दिनों की बहस के बाद अंत में सबने यही ठीक समझा कि जहाँ जहाँ भी उनकी जमीन है उसे दो हिस्सों में बाँट लिया जाय। एक हिस्सा राजू के दादा का और दूसरा छोटे दादा का। ऐसा ही किया गया।

घर का दाहिना भाग राजू के दादाजी के हिस्से में आया और बायाँ हिस्सा राजू के छोटे दादा को मिला। छोटे दादा और उनके बच्चे गाँव से कस्बे में आ गये और राजू के दादाजी के साथ ही रहने लगे। धीरे धीरे घरेलू झगड़े बढ़े और एक दिन निर्णय लिया गया कि घर के बीचोबीच दीवार उठा दी जाय। अगले ही दिन ईंटें, रेत और बजरी का ढेर घर के सामने लगवा दिया गया। उसके बाद शुरू हुआ दीवार का बनना।

लोग कहते हैं कि एक बार गुस्से में आकर छोटे दादाजी कुँए में कूद गये थे। तब उनको बचाने के लिए दादाजी भी बिना कुछ सोचे समझे फौरन कूद गये और अंत में रस्सी की मदद से दोनों लोगों को बाहर निकाला गया। अब दोनों लोग आँगन के इस पार और उस पार बैठे बीच में उठती हुई दीवार को देखते रहते थे। पर वो क्या करते उनके बच्चों के दिलों में दीवार बहुत पहले ही उठ चुकी थी और जब दिलों के बीच दीवार उठ जाए तो सबके लिये यही बेहतर होता है कि आँगन में भी दीवार उठा दी जाय।

इस दीवार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा मैं था। मेरे पास पहुँचने पर मजदूरों ने नींव खोदना बंद कर दिया और दीवार का बनना रुक गया। घर में सब आपस में सलाह मशविरा करने लगे कि कौन दादाजी के पास इसे काटने की अनुमति लेने जाए। अंत में निर्णय लिया गया कि सब एक साथ जाएँगें। सबकी बात सुनने के बाद दादाजी ने अपने हाथ में कुल्हाड़ी उठाई और कुछ ही मिनटों में मुझे काटकर जमीन पर गिरा दिया। इसके बाद वो कुल्हाड़ी वहीं फेंककर बाहर चले गये।

मैं सोचता था कि अपनी जड़ों से अलग होते ही मैं मर जाऊँगा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुझे दर्द बहुत ज्यादा हो रहा था और खून भी लगातार निकल रहा था। लेकिन मुझे लग रहा था कि मैं मरूँगा नहीं। मुझे काटने के बाद मजदूरों ने मेरी जड़ों को जमीन से खोदकर बाहर निकाल दिया और दीवार की नींव पड़ने लगी।

उस दिन शाम को दादाजी शराब के नशे में धुत होकर आये और ताजी बनी हुई दीवार धक्का मारकर गिरा दी। दादाजी अपनी जवानी के दिनों में कुश्ती लड़ा करते थे। उनमें अभी तक इतना दम खम था कि वो अकेले ही चार पाँच पर भारी पड़ते थे इसलिए किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उनसे कुछ कह सके। अगले तीन चार दिनों तक यही हुआ। पाँचवे दिन सबने मिलकर पुलिस बुलाई और दादाजी को थाने में बंद करवा दिया। थानेदार को राजू के पिताजी और चाचाओं ने यह कहकर पैसे दिये कि जब तक दीवार न बन जाये इन्हें अंदर ही रखना।

दीवार बन गई, मजबूत हो गई तब दादाजी को छुड़ाकर लाया गया। शाम को वो फिर पीकर आये, दीवार में धक्के मारे, मगर इस बार दीवार का कुछ नहीं बिगड़ा। दादाजी अब रोज शाम को पीकर आते थे। एक दिन उन्हें बुखार हुआ। डॉक्टर ने दवाएँ दीं मगर बुखार चढ़ता ही गया। अंत में उन्हें जिले के सरकारी अस्पताल में भरती कराया गया। वहाँ के डॉक्टरों ने दो दिन बाद जवाब दे दिया। सब उन्हें लेकर इलाहाबाद भागे और वहाँ के एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में उन्हें भरती कराया गया। वहाँ पता चला कि उन्हें मस्तिष्क ज्वर है। डॉक्टरों ने बहुत कोशिश की पर उन्हें बचा नहीं सके। घर की औरतें दहाड़ मार मार कर रोईं। पिताजी और चाचाजी ने उनके मुर्दा पाँवों को अपने आँसुओं से भिगो दिया। सारा कस्बा कहने लगा कि दादाजी को बड़े अच्छे पुत्र और भतीजे मिले हैं। इतने अच्छे बेटे के हाथ से मुखाग्नि पाकर वो निश्चित ही स्वर्ग जाएँगें। राजू समाचार सुनकर वापस आ गया। मैं आँगन को कोने में पड़ा पड़ा सब देख रहा था।

राजू के पिताजी ने दादाजी का क्रियाकर्म किया। तेरहवीं के बाद राजू को वापस जाना पड़ा। मगर जाने से पहले उसने एक अच्छा काम किया। वो मुझे कस्बे की आरामशीन पर ले गया और मेरे टुकड़े करवाकर बढ़ई से एक तख्त और एक कुर्सी बनवा दी। मुझे आँगन में छप्पर के नीचे रख दिया गया। अब राजू की दादी दिन में मेरे एक हिस्से पर बैठतीं और दूसरे हिस्से पर सोतीं। अगर राजू ऐसा न करता तो मैं आँगन में पड़े पड़े सड़ जाता और मुझे दीमक चाट जाती। यहाँ आँगन में मैं काफी समय तक बचा रहूँगा।

कुछ महीनों बाद सन्यासी जी फिर घूमते फिरते इघर आये। सौभाग्य से उन दिनों राजू भी यहीं था। उन्होंने सब सुना तो बोले कि कटहल का पेड़ कटने के बाद उस पर रहने वाला ब्रह्मराक्षस बेघर हो गया था, इसलिए उसने दादाजी के शरीर में रहना शुरू कर दिया। शराब पीने के लिए वही ब्रह्मराक्षस उन्हें मजबूर करता था। धीरे धीरे ब्रह्मराक्षस को उनसे मोह हो गया तो उनकी जान लेकर ब्रह्मराक्षस ने उन्हें अपने पास बुला लिया। आप लोग उनकी आत्मा की मुक्ति के लिए यज्ञ करवाइये नहीं तो उनकी आत्मा हमेशा हमेशा के लिए ब्रह्मराक्षस के चंगुल में ही फँसी रहेगी। यह सुनकर सब उनकी हाँ में हाँ मिलाने लगे और यज्ञ कैसे करवाना है, कब करवना है वगैरह पूछने लगे। राजू थोड़ी देर तक अपनी हँसी रोकने की कोशिश करता रहा लेकिन अंत में जोर जोर से हँसने लगा। सब आश्चर्य से राजू का मुँह देखने लगे और मैं मुस्कुराने लगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 7, 2014 at 8:39pm

आदरणीय  Shubhranshu Pandey जी, आपने न सिर्फ़ कहानी को पढ़ा वरन इसकी निष्पक्ष समीक्षा भी की इसके लिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ।

आप सही कह रहे हैं यहाँ एक त्रुटि या अस्पष्टता आ गई है। दर’असल कोई भी पेड़ जब नया होता है तो उसके भीतर हृदय काष्ठ (heartwood) की मात्रा बहुत कम होती है। ऐसे वृक्षों से अच्छा फ़र्नीचर नहीं बनता। धीरे धीरे समय के साथ तने के बीच का भाग रसायनों के रिसाव से घना और मजबूत होता जाता है (इसे ही हृदय काष्ठ कहते हैं)। ऐसे वृक्षों की लकड़ी से अच्छा फ़र्नीचर बनता है। देशी भाषा में कहते हैं कि "लकड़ी अभी कच्ची है" या "अब लकड़ी पक गई है"। दर’असल दादाजी यही कहना चाह रहे थे कि अभी तो पेड़ नया है और इसकी लकड़ी कच्ची है इसलिए इससे फ़र्नीचर नहीं बनेगा। मैं दादाजी की बात लिखने में गलती कर गया। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आपका आभारी हूँ। स्नेह बना रहे।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 7, 2014 at 8:32pm

आदरणीया coontee mukerji साहिबा, आपने ये कहानी मनोयोग से पढ़ी और मेरा हौसला बढ़ाया इसके लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। आपने अपने विचारों से अवगत कराया इसके लिए भी आपका आभार प्रकट करता हूँ।

यह बात सही है कि कुछ पेड़ों की लकड़ियाँ प्राकृतिक रूप से दीमकरोधी होती हैं जैसे महोगिनी इत्यादि। मगर यदि इन लकड़ियों को भी खुले में बार बार भीगनी और सूखने दिया जाय तो ये भी सड़ने लगती हैं और इनमें भी दीमक लग जाती है। कटहल की लकड़ी प्राकृतिक रूप से दीमकरोधी नहीं होती। कटहल की लकड़ी हल्की होती  है इसलिए उसका प्रयोग मूसल बनाने में किया जाता है। इसी कारणवश कटहल की लकड़ी से वाद्ययंत्र भी बनाये जाते हैं।

आशा करता हूँ कि आपकी शंका का समाधान हो गया होगा।

सादर

Comment by Shubhranshu Pandey on February 7, 2014 at 9:55am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी, 

एक कटहल के पेड़ की आत्मकथा को कई रुप और घटनाओं के साथ प्रस्तुत किया गया. जादु टॊने को साइन्स का आधार दे कर कई अनुत्तरित प्रश्नों का हल प्रस्तुत कर दिया है.

सुन्दर कथा. जिसमें कई भाव और घटनाओं का समायोजन किया है. कटहल के द्वारा एक घर की कथा और बदलते परिवेश और समस्या को दिखाया गया है.

आपने कार्य सिद्धी के लिये लोग कितने मतलबी हो जाते है.दिवाल खडी करने के लिये जब अपने दादा को ही जेल में बन्द करवा दिया जाना एक अलग रुप प्रस्तुत करता है.   

दादा जी की घुटन को शराब में डुबोना देवदास वाली फ़ीलिंग  दे रहा है. 

जब दादा जी ने कटहल की लकडी़ को कमजोर बता कर फ़र्निचर बनवाने से मना कर दिया था, तब राजू ने उसी की लकडी का तखत और कुर्सी कैसे बनवा दिया ?

सादर.

 

Comment by coontee mukerji on February 6, 2014 at 11:04pm

 ब्रम्हराक्षस  की कहानी  अक्सर गाँवों में सुनने को मिलता है.....कितना सच और कितनी गलत यह हम नहीं कह सकते हैं....लेकिन एक बात ज़रूर है पीने वालों को कोई न कोई बहाना तो चाहिये ही...और पाखण्डियों को ठगने का बहाना....दोनों कामेल खूब बैठता है......(मैं आँगन में पड़े पड़े सड़ जाता और मुझे दीमक चाट जाती। ) कटल की लकड़ी में  न दीमक लगता है और न सड़ता है इसी कारण इसकी लकड़ी से ओखली मूसल बनता है और नाव भी बनती है......कहानी की कथावस्तु अच्छी है लेकिन शैली सुधार माँग रही है......शुभेच्छु.

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