सूखे पत्तों के ढेर में
उम्मीद का
एक अंकुर फूटा
सूखे पत्ते मानो,
लाशें हैं
लाश हारे हुये लोगों की
लाश,
पराधीनता को किस्मत समझ
डर-डर के जीने वालों की
वो अंकुर है
भाग्योदय का
कीचड़ में उतर
परजीवियों को
साफ कर
समाज से
बीमारी हटाने वालों का
जो एक ज़र्रा था कल तक
आज
ज़माना उसकी चमक देख रहा है
अपनी नन्हीं आँखें खोल
मानो, कह रहा है
उठो
खुद को पहचानो,
खुद को बदलो,
आओ, नये युग की शुरुआत लिखें
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लड़ीवाला सर रचना को सराहने के लिये आपका आभार
आदरणीया डॉ. प्राची जी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय अखिलेश सर आपका आभार
आओ नव युग की शुरुआत करे - सुन्दर रचना के लिए बधाई और साथ ही वर्ष २०१४ का हर दिन आपके लिए शुभ हो यही मंगल कामनाए है
जो एक ज़र्रा था कल तक
आज
ज़माना उसकी चमक देख रहा है
अपनी नन्हीं आँखें खोल
मानो, कह रहा है
उठो
खुद को पहचानो,
खुद को बदलो,
आओ, नये युग की शुरुआत लिखें....वाह !
बहुत खूबसूरत कविता आ० शिज्जू जी .बहुत बहुत बधाई
आदरणीय शिज्जू भाई, नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ आपको इस सुंदर गीत की भी हार्दिक बधाई॥
आदरणीय विजय सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
अति सुन्दर भाव। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
आपका बहुत बहुत शुक्रिया नादिर भाई
नन्हीं आँखें खोल
मानो, कह रहा है
उठो
खुद को पहचानो,
खुद को बदलो,
आओ, नये युग की शुरुआत लिखें
वाह शिज्जु जी क्या बात है, आपकी रचनाओं का जवाब नहीं बहुत खूब ......
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