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गजल-खोलकर खिडकी तेरा अहसास करती हूँ--उमेश कटारा

वो तेरे नखरे तुझे कुछ खास करते हैं

आज भी हम तो मिलन की आस करते हैं

इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं

बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी

ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं

बेवफाई कर नहीं सकता सनम मेरा
लोग यूँ ही आजकल बकवास करते हैं

कौन आगे बोलता है अब सितमगर के
बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं

उमेश कटारा

मौलिक एंव अप्रकाशित 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 18, 2013 at 7:27pm

कटारा  जी

ग़ज़ल के भाव अच्छे है i  बधाई हो i

Comment by Maheshwari Kaneri on December 18, 2013 at 7:12pm

सुंदर प्रस्तुति पर  बधाई .

Comment by umesh katara on December 18, 2013 at 7:04pm

 जी शिज्जु शंकर जी काफिया गडबड है सही किये देता हूँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 18, 2013 at 11:17am

आदरणीय उमेश कटारा जी आपकी ये रचना ग़ज़ल होते होते रह गई काफियाबंदी एक बार फिर देख लें

Comment by Abhinav Arun on December 18, 2013 at 10:42am

आ. उमेश जी खूबसूरत ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई !!

Comment by Shyam Narain Verma on December 18, 2013 at 10:33am
क्या बात है .... बहुत उम्दा | बधाई आप को 

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