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अमृता प्रीतम जी और ईश्वर ... (विजय निकोर)

अमृता प्रीतम जी और ईश्वर

कई लोग जो अमृता प्रीतम जी की रचनाओं से प्रभावित हैं अथवा उनके जीवन से परिचित हैं, उनकी मान्यता है कि अमृता जी विधाता में विश्वास नहीं करती थीं। इस कथन में वह ठीक हैं भी और नहीं भी। यह इसलिए कि अमृता जी का लेखक-जीवन इतना लम्बा था कि यह मान्यता इस पर निर्भर है कि वह कब किस पड़ाव में से गुज़रीं, और उनकी उस पड़ाव के दोरान की रचनाएँ क्या इंगित करती हैं।

 

अमृता जी की रचनाओं के लिए असीम श्रद्धा के नाते और जीवन को उनके समान असीम गहराई से देखने के नाते मुझको उनसे कई बार मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अत: कई लोग अमृता जी के लिए मेरे मन में एक विशिष्ट स्थान से परिचित हैं, और वही लोग यह भी जानते हैं कि ईश्वर में मेरा अटूट विश्वास है। इसलिए मुझको इस बात का आश्चर्य नहीं कि इस प्रष्ठभूमि में किसी ने मुझसे कभी कहा था .....

" शायद अमृता जी तो ईश्वर में विश्वास नहीं करती थी पर आप... आप तो उनमें बहुत श्रद्धा रखते हैं, ये मुझे विसंगत-सा लगता है।"  वस्तिविक्ता तो यह है कि अमृता जी की बाल-अवस्था एक धार्मिक वातावरण से गुज़री थी। अपने पिता नन्द साईं के बारे में उन्होंने एक बार लिखा था ....

"पिता - जो उन दिनों नन्द साधु थे

राज बीबी उनकी जवानी का सपना बनीं

और मैं - उनके सपने की ताबीर-सी पैदा हुई।"

 

अमृता जी का जन्म सन १९१९ में हुआ था। अपनी बाल-अवस्था के विषय में उन्होंने स्वयं लिखा था... "मैं आठ-नौ वर्ष की रही हूँगी। घर का पूरा वातावरण धार्मिक था। सुबह-शाम पाठ करना, सोने से पहले दस मिनट आँखें मींचकर मन को ईश्वर के ध्यान में लगाना, घर का नियम था। चाहे घर में महमान आये हों ... आँखो में नींद भर आए, पर कोई भी बात इस नियम में विघन नहीं डाल सकती थी।"

 

तब एक दिन उन्होंने अपने पिताजी से पूछा था, "ईश्वर की शक्ल कैसी होती है?" इस पर उनके पिताजी ने बताया, " ईश्वर की मंज़िल पर गुरू की राह से होकर पहुँचा जाता है। यह दस गुरूओं के चित्र हैं। तू इनमें से कोई भी शक्ल स्मरण कर लिया कर".... और उन चित्रों को बार-बार देखते अमृता जी की नज़र जहाँ अटक जाती थी वह छठे गुरू हरिगोविन्दसिहं जी और दसवें गुरू गोविन्दसिहं जी के चित्र थे।

 

१९२८ में जब अमृता जी मात्र ९ साल की थीं जब उन्हें रातों को अकसर गुरू हरिगोविन्दसिहं जी का और गुरू गोविन्दसिहं जी का सपना आने लगा था, और वह सपने में उनसे बातें करती थीं। मैंने उनसे १९६३ में एक बार पूछा कि उन्होंने अपने माता-पिता को इन सपनों के विषय में बताया क्या? कहने लगीं, "पिता जी कठोर थे, डरती थी कि पता नहीं वह क्या कह देते, पर अगले दिन माँ को पिछली रात का सपना सुना देती थी, और मेरी माँ इतनी खुश होती थीं... जा कर अपनी सहेलिओं को मेरे सपने बताती-फिरती थीं ...और उनकी वही सहेलियाँ कभी-कभी आ कर मेरे पाँव छू लेती थीं क्यूँकि मुझको गुरूओं के सपने आते थे"।  इस धार्मिक वातावरण के बावजूद अमृता जी के जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी हुईं कि जिनसे किसी का भी मन हिल सकता है, किसी का भी विश्वास टूट सकता है,विशेषकर यदि वह घटनाएँ बचपन की मासूम आयु में हुई हों ... तो बच्चे पर क्या गुज़रती है! 

 

उनके संग हुई ऐसी ही एक घटना बताता हूँ। अमृता जी मात्र ११ वर्ष की थीं जब उनकी माँ बहुत बीमार हो गई थीं। घर के लोगों ने उमीद छोड़ दी थी। माँ के पास अमृता जी को ले गए तो माँ होश में नहीं थीं... माँ ने अपनी बच्ची को नहीं पहचाना। अमृता जी ने बताया कि किसी ने इस बच्ची से, उनसे,  कहा कि ईश्वर से प्रार्थना कर, ईश्वर बच्चों की बात सुनते हैं...और अमृता जी ने अपने शिशु मन से ध्यान लगा कर ईश्वर से प्रार्थना की और कहा, "मेरी माँ को बचा लो, उसे न मारना" ...... लेकिन माँ नहीं रहीं। उस समय शिशु-अमृता  अत्यंत क्षुब्ध थीं... कि "ईश्वर किसी की नहीं सुनता, बच्चों की भी नहीं"। वह पाठक जिन्होंने अमृता जी का उपन्यास "एक सवाल" पढ़ा है, शायद वह याद करेंगे कि अमृता जी ने यह मार्मिक घटना उस उपन्यास के पात्र जगदीप के मुँह इन्हीं शब्दों में कही है जब जगदीप की माँ नहीं रहतीं।  उस शोक-ग्रस्त दिन से शिशु-अमृता ने अपने घर का नियम तोड़ दिया...अब वह सोने से पहले दस मिनट आँखें मींचकर ईश्वर में ध्यान नहीं लगाती थीं।  हाँ, अमृता जी का ईश्वर में विश्वास टूट गया था, परन्तु सदैव के लिए नहीं। जीवन में कई घटनाओं के बावजूद भी अमृता जी ने १९६१ में गुरू नानक जी पर एक कविता लिखी...

 

"यह कौन-सा जप है

 कौन-सा तप है

 कि माँ को

 ईश्वर का दीदार

 कोख में होता है" ...

 

... और यह भी लिखा, " जिस माँ ने गुरू नानक जैसे पुत्र को जन्म दिया वह मेरी आँखों में बसी रहती थी" ...

 

मैं १९६४ में जब चौथी बार अमृता जी से  मिला तो मैं उन दिनों यू.एस.ए.आने की तैयारी कर रहा था। कई बार मिलने के कारण उन्होंने मेरे मन को बहुत भीतर से देखा था, परखा था, और मैंने उनको यू.एस.ए. आने के दो कारण पूरी सच्चाई से बताए थे। वह मेरे यहाँ आने के निर्णय से खुश थीं भी, और नहीं भी। क्यों नहीं थीं, यह बात कभी और... यदि बता सका तो...।

 

१९६०- ७० के वर्षों में अमृता जी रशिया में जन्मी अमरीकन लेखक-दार्शनिक अय्न रैन्ड  (Ayn Rand) से अति प्रभावित थीं। अत: उन्होंने मुझको सुझाव दिया कि मैं यू.एस.ए. आने पर अय्न रैन्ड की पुस्तक Fountainhead  को ज़रूर पढ़ूँ.. और मैंने यहाँ आ कर पढ़ने के बजाए यह पुस्तक अगले दिन भारत में ही खरीद कर पढ़नी शूरू कर दी थी। मैं अय्न रैन्ड की शैली और दार्शनिकता दोनों से बहुत प्रभावित हुआ... इतना कि यहाँ आने पर मैंने उनकी और भी कितनी पुस्तकें बड़े चाव से पढ़ीं, उनके कई खयाल मेरे खयाल बन गए, पर एक दिशा में मैं उनसे अलग रहा... वह यह कि अय्न रैन्ड ईश्वर में विश्वास नहीं करती थीं, और मेरा विश्वास ईश्वर में कट्टर रहा। उनकी मान्यता थी कि मानव से ऊँचा और कोई नहीं है। तब मैंने यह भी जाना कि अमृता जी क्यूँ मुझसे कई बार कहती थीं,

( पंजाबी में) ..." विजय जी, ईश्वर ते है ई, तुसीं आपणें विच विश्वास रखो" ...

... अनुवाद, " विजय जी, ईश्वर तो है ही, आप अपने में विश्वास रखो।"

 

अत: १९६० और ७० के दशक की अमृता जी को जानने के लिए हमें उनको अय्न रैन्ड के प्रभाव के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। अय्न रैन्ड के अनुसार मानव ऐसा भी हो सकता है कि जैसे उन्होंने Fountain Head में Howard Roark के चरित्र को दृश्यमान किया है..."His face was like a law of nature, a thing you could not question, alter or implore." क्या वर्णन है, क्या विवरण है स्थिरता का, अटलता का, दृढ़ता का ! अमृता जी के अनुसार भी मानव को ऐसा ही होना चाहिए। अमृता जी नास्तिक कदाचित नहीं थीं... ईश्वर को मानती थीं, पर इसके साथ-साथ वह अय्न रैन्ड से प्रभावित होने के कारण वस्तुपरकता (objectivity) को भी महत्व देती थीं, और यही सीख उन्होंने मुझको भी दी जब उन्होंने मुझसे कहा, ... पंजाबी में...

" विजय जी, भावना प्यार विच ठीक ए, नज़्मां विच ठीक ए, पर एदे नाल ज़िन्दगी कदी नईं जी सकदे।"

 अनुवाद: "विजय जी, भावनाएँ प्रेम में ठीक हैं, कविता में ठीक हैं, पर इनके साथ जीवन नहीं जी सकते।"

 

यह तो बात थी ६० और ७० के दशक की। उसके बाद आयु बढ़ने के साथ-साथ अमृता जी पुन: आध्यात्मिक्ता की ओर गईं...इतनी कि उन्होंने शिरदी के साईं बाबा से प्रभावित हो कर साईं दर्शन पर कई कविताएँ भी लिखीं .... कि जैसे....

 

साईं ! तू अपनी चिलम से

थोड़ी-सी आग दे दे

मैं तेरी अगरबत्ती हूँ

और तेरी दरगाह पर मैंने

एक घड़ी जलना है ...

 

और फिर...

 

जो भी हवा बहती है

दरगाह से गुज़रती है -

तेरी साँसों को छूती है

साईं ! आज मुझे -

उस हवा से मिलना है ...

 

यह पंक्तियाँ अमृता जी ने १९९३ में लिखी थीं। कैसे कह दूँ कि अमृता जी का ईश्वर में विश्वास बचपन में माँ को खो देने के बाद वापस नहीं आया था। बात करती थीं ... धीरे-धीरे ... ठहरा कर... कि जैसे उनके ओंठों से आध्यात्मिक्ता का भाव छलक रहा हो।

                                               --------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by Neeraj Neer on December 15, 2013 at 8:57pm

आपसे पूरा विवरण सुनना ऐसा लगा जैसे आपने उनसे साक्षात्कार करवा दिया .... आपको सादर नमन 

Comment by Neeraj Neer on December 15, 2013 at 8:54pm

मैंने कभी अमृता जी को नहीं पढ़ा ... राशिदी टिकट बचपन में पढ़ा था .. इतनी जानकारी के लिए आभार .

Comment by Vindu Babu on December 13, 2013 at 6:34pm

गदगद हृदय से नतमस्तक हूँ आदरणीय.

मुझे तो इस सुनियोजित आलेख पर शायद सबसे पहले उपस्थित होना चाहिए था,क्षमा करें आदरणीय मुझे देर हो गयी।

 ईश्वर से विश्वास हटा नहीं बल्कि यूँ कहें उन्हें उस छोटी अवस्था में ही जीवन का यथार्थ ज्ञात हो गया था,और तभी से स्वयं के उत्कर्ष के लिए प्रतिबद्ध हो गयीं थी।

Fountai Head भी अब  पढ़ने के लिए लम्बित पुस्तकों में शामिल हो गयी।

आपके प्रस्तुतिकरण का अनोखा ढंग शंका को टिकने नहीं देता।

आपका हृदयातल से बारम्बार आभार।

सादर

Comment by coontee mukerji on December 12, 2013 at 6:51pm

विजय जी,मैं क्या बताऊँ,अमृता प्रीतम जैसी महान हस्ती से आप कभी रूबरू थे....और उस समय के सफ़र  के चंद वाक्या जब हमें सुनाते हैं तब ऐसा लगता है हम टाइम मशीन के द्वारा वहाँ पहुँच गये है.जहाँ तक उनकी रचनाओं को पढ़कर मैंने जाना है, वह बहुत ही प्रगतिशील महिला थी. उनकी बेज़ोड़ लेखनी का कोई मुकाबला नहीं. सच बताऊँ तो पहले मुझे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में बहुत संकोच होता था लेकिन जब मैंने अमृता प्रीतम जी की रचनाएँ पढ़नी शुरू की तब खुलकर लिखने लगी.हालांकि अमृता जी की निंदक भी कम नहीं है.आपके पिछले संस्मरण और इसबार का भी मैंने hard copy कर ली है.सादर/कुंती.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 12, 2013 at 2:01pm

आदरणीय सर ...अमृता जी के जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं की जानकारी आपके लेखों से मिली है ..आज उनके जीवन के एक और पहलू की जानकारी हुई ....इस अद्भुत संस्मरण के लिए हार्दिक धन्यवाद ...सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 12, 2013 at 7:17am

आदरनीय बड़े भाई विजय जी , अमृता जी के विषय मे एक और सुन्दर लेख ( संस्मरण ) के लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद और बधाई !!!!

Comment by Priyanka singh on December 11, 2013 at 9:13pm

अमृता जी ईश्वर में विश्वास रखती थी हाँ वो सिर्फ बाहरी आडम्बरों से बचती थी उन्होंने अपनी आत्मकथा ''अक्षरों के साये'' में अपने इस ईश्वरीय विश्वास को अपने सपनों के माध्यम से बयां किया है........ आo सर ........आप ने पहले भी अमृता जी के जीवन से हमसभी को अवगत कराया है जो ख़ास लिए बहुत मायने रखता है ........बहुत बहुत आभार आपका इस रचना के लिए .........

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2013 at 8:32pm

आदरणीय निकोर जी

आपकी रचना बड़ी तन्मयता से पढी i आत्ममुग्ध सा हो गया i  अमृता जी ही  क्या मै समझता हूँ आम आदमी भी जीवन भर आस्था और अनास्था के बीच झूलता है  i पर  अंत में आदमी लौटता सनातन विश्वास पर ही है i ईश्वर क्या हमारे मन माफिक रिजल्ट देगा ?कभी नहीं i  वह भी संपादक है,  रचनाये रिजेक्ट करता है i आपके अमृता जी के मधुर संबंधो की जानकारी से  आपके प्रति  श्रृद्धा और बढ़  गयी है i पर वह आपके आने से खुश क्यों नहीं थी इस नाजुक प्रश्न को आप अपनी पीडाओ की भांति ही छिपा गये  है i मुझ

जैसे जिज्ञासु को अपनी  किसी कविता के माध्यम से  बताइयेगा जरूर i  इस सुन्दर रचना के लिए आपको भूरि भूरि  बधाईया i

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