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गीत (पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ)

गीत (पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ)

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो,

जैसे पूछ रही हो मुझसे, क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो।

 

तुम नयनों से अपने जैसे

कोई सुधा सी बरसाती हो,

कैसे कह दूँ संग में अपने

नेह निमंत्रण भी लाती हो,

फिर भी कहती हो तुम मुझसे, क्यों मुझ में ही गुम दिखते हो,

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।

 

वाणी तुम्हारी वेद मंत्र सी

पावन दिल को छूने वाली,

और रसीले अधर तुम्हारे,

केश हैं जैसे बदरा काली,

तुम मीरा सी श्याम की धुन में, जैसे हो गुमसुम दिखते हो,

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।

 

तुम हो शरद सी ऋतु मस्तानी

हिम का घूँघट ओढ़ चली हो,

तुम वसंत में तन पर अपने

सुमन लताएँ मोड़ चली हो,

तुम वर्षा की रिमझिम धारा, और कभी फागुन दिखते हो,

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।

----------------------------------------------------- सुशील जोशी

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Sushil.Joshi on October 21, 2013 at 8:59am

गीत पर विस्तार से अनुमोदन के लिए बहुत बहुत आभार आपका आदरणीया डॉ. प्राची जी... शिल्प के विषय में आपने जो भी कुछ बताया है उस पर अवश्य ही ध्यान दूँगा..... यह मेरा सौभाग्य है जो इस मंच पर आप जैसे विद्वजनों से कुछ सीखने को मिल रहा है...... आशा करता हूँ कि यह स्नेह भविष्य में भी यूँ ही बना रहेगा..... सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 18, 2013 at 11:55pm

आदरणीय सुशील जोशी जी 

गीत की सहजता मुग्धकारी है...शब्द चयन भाव प्रस्तुति के अनुरूप सहज है ..बहुत बहुत बधाई! निश्चित ही आपके लेखन में बहुत आगे तक संभावनाएं दिखाई देती हैं.. पूरी प्रस्तुति में यदि अंतरे में ३२ और बन्दों १६-१६ मात्रा का ही निर्वहन होता प्रवाह बिलकुल निर्बाध होता...

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो,...३२ 

जैसे पूछ रही हो मुझसे, क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो।...३२....यदि ऊपर की पंक्ति में स्त्री के लिए दीखते हो प्रयुक्त किया गया है तो दूसरी पंक्ति में रही हो क्यों? यहाँ भी यदि रहे हो होता तो?

 

तुम नयनों से अपने जैसे...१६ 

कोई सुधा सी बरसाती हो,.१७ .प्रेम/नेह.मधुर  सुधा सी बरसाती हो..१६ (भाव वही रखते हुए शब्द को परिवर्तित कर साधना चाहिए) 

कैसे कह दूँ संग में अपने...१७ ..यहाँ संग शब्द बदले जाने से मात्रा सही होगी (..कैसे कह दूँ दृग कोरों में..१६ )शायद भाव वैसे ही लगें!

नेह निमंत्रण भी लाती हो,...१६ 

फिर भी कहती हो तुम मुझसे, क्यों मुझ में ही गुम दिखते हो,..३२ 

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।......३२ 

 

वाणी तुम्हारी वेद मंत्र सी..१७.........तुम्हारी को बदलना चाहिए ..(वाणी शुचिकर वेद मन्त्र सी.....१६  )

पावन दिल को छूने वाली,...१६ 

और रसीले अधर तुम्हारे,....१७...... अब आप इसी प्रकार मात्रिकता पर इस गीत को साधिये और देखिये..

केश हैं जैसे बदरा काली,....१७ .................बदरा या बदरी काली 

तुम मीरा सी श्याम की धुन में, जैसे हो गुमसुम दिखते हो,...........यह पंक्ति व्याकरण के अनुरूप नहीं है..दुबारा देखिये 

पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो।

यह बहुत मधुर लालित्य पूर्ण गीत है... इस गीत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

शुभेच्छाएं 

Comment by Sushil.Joshi on October 16, 2013 at 8:43pm

गीत पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय विजय मिश्र जी.....

Comment by Sushil.Joshi on October 16, 2013 at 8:42pm

आपकी यह टिप्पणी पाकर लगता है कि मेरा लेखन सफल हुआ आदरणीया शशी जी...... यह मेरी खुशकिस्मती है कि आप बार बार इस गीत को पढ़ रही हैं..... इससे अवश्य ही मुझे प्रोत्साहन मिलेगा...... सादर आभार आपका....

Comment by Sushil.Joshi on October 16, 2013 at 8:40pm

आपके स्नेह के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय अरुन जी.....

Comment by Sushil.Joshi on October 16, 2013 at 8:39pm

आपको गीत पसंद आया तो मेरी लेखनी को संबल मिला है आदरणीय बृजेश जी..... हार्दिक धन्यवाद आपका

Comment by Sushil.Joshi on October 16, 2013 at 8:37pm

अनुमोदन के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय निकोरे जी..... आप बड़ों का आशीर्वाद एवं माँ शारदे की कृपा रही तो अवश्य इस प्रकार की रचना आगे भी पढ़ने को मिलेंगी..... यद्दपि मैं इस क्षेत्र में अभी बहुत ही छोटा सा हस्ताक्षर हूँ.....

Comment by विजय मिश्र on October 16, 2013 at 6:14pm
प्रसंशनीय प्रणयगीत , प्रवाह भी मन्त्रमुग्ध करने वाला . बधाई सुशीलजी
Comment by shashi purwar on October 16, 2013 at 5:07pm

waah waah kya baat hai aapka yah geet bahut pasand aaya , har baar aati hoon to padh leti hoon , badhai aapko sushil ji

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 16, 2013 at 3:53pm

वाह आदरणीय सुशील भाई जी वाह प्रेम रंग में सराबोर बहुत ही सुन्दर गीत रचा है आपने श्रृंगार रस का धारा बह चली बहुत बहुत बधाई स्वीकारें

कृपया ध्यान दे...

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