For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

 

(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जीओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)

कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं .. यदि यह सच है तो मेरे लिए कई सालों से अक्तूबर का महीना कुछ ऐसा ही है। १७ अक्तूबर को मेरी शादी की सुखद वर्षगांठ और ३१ अक्तूबर को मेरी सर्वप्रिय लेखिका अमृता प्रीतम जी के निधन का दिन ... और उसके साथ लिपटी चली आती है

गहन उदासी ... उनके संग करी हुई बातें ... उनके चेहरे की भाव-मुद्रा ... पलकें झपकती थीं तो जैसे 

कभी-कभी बिना शब्दों के कितना कुछ कह देती थीं, ... और कभी संजीदे ख़यालों के बीच अचानक उनके ओंठों का एक कोर दब जाना ... कि जैसे कोई असह पीड़ा डस गई हो... पीड़ा जो निजि होने के नाते वह साझा न कर सकती हों ... कि मानो कुछ कहना चाहती हों पर कह न पाती हों ... कई बार 

ऐसे ही कुछ पल के लिए बिना बात किए हुए भी अच्छा लगता था ... या यह कहूँ कि यह मौन पल ... शब्दों से अनछुए पल ... और भी अधिक प्रिय लगते थे ... कि जैसे वह ज़्यादा अपनत्व से भरे हों ... कुछ कहने की ज़रूरत ही न हो।

 

... कुछ ऐसा था प्रभाव उनका !

 

अब फिर एक और अक्तूबर है, २०१३ ... और अभी तो ३१ तारीख़ में बहुत दिन बाकी हैं, पर मुझमें जैसे कोई खौफ़ समा गया है...एक भी दिन नहीं बीतता जब अमृता जी  की याद न आए, न सताए।

 

अब जब भी यू.एस.ए. से भारत आता हूँ तो दिल्ली में उनके घर की गली (पता: K-25 Hauz Khas) को सम्मान देने जाता हूँ ... उस गली में मुझको उनकी आवाज़ अभी भी जीवित सुनाई देती है ... 

 

... और आज लगता है जैसे रंगमंच पर कोई मुझको एकाएक ४९ वर्ष पीछे ले गया हो ... जब बुधवार १५ जनवरी,१९६४ ... शाम के ४-४० से ६:३० तक मैं अमृता जी के घर पर उनके साथ था। मैं उन दिनों की सरल पोशाक --सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद पैंट पहने उनके घर की ओर बढ़ रहा था कि अचानक ऊपर देखा तो balcony में अमृता जी ही खड़ी थीं ... एक आँख थोड़ी-सी झुकी हुई और बेहद सरल मुस्कान ... जो मेरे लिए अति सुखदाई थी, क्यूँकि मैं तब केवल २२ साल का था और अमृता जी के स्तर की लेखिका से मिलने के लिए अभी भी संकोची था, लज्जाशील था ... कि बातों में मुझसे कोई गल्ती न हो जाए। लगता है, कुछ भी तो नहीं बदला ... मैं अभी भी वैसा ही हूँ ... संकोची,लज्जाशील... शायद कुछ ज़्यादा ही।

 

सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर गया ... मुझको याद था पिछली बार अमृता जी को पंजाबी में बात करनी ज़्यादा पसंद थी। अत: निम्न वार्तालाप पंजाबी में होने के कारण साथ ही साथ हिन्दी में अनुवादित है।

 

विजय      " नमस्ते। की हाल ए ?"  (नमस्ते, क्या हाल है?)

अमृता जी " ठीक, तुसीं सुणाओ"     (ठीक, आप सुनाइए    )

 

वि०          " ते फ़िर तुसीं मंज़िल दे उते मंज़िल बढ़ां लई ए

                 ( तो आपने मंज़िल के ऊपर मंज़िल बना ली है !"

 

अ०           " मंज़िल ते कदी वी नईं बंढ़दी  (मंज़िल तो कभी भी नहीं बनती)

 

वि०           " या, ए कईए कि इक मंज़िल ने दूजी मंज़िल नूं चुक ल्या ए"

                  ( या, यह कहें कि एक मंज़िल ने दूसरी मंज़िल को उठा लिया है)

 

अ०            " हाँ, मंज़िलां बंण जांदिआं ने,पर फ़िर वी मंज़िल मंज़िल नूं नई चुकदी"

                   (हाँ, मंज़िलें बन जाती हैं, फिर भी मंज़िलें मंज़िलों को नही उठातीं)

 

वि०            " मैं जदों वी कोई मकान नूं बंढ़दा वेखदां तां कुज अजीब ज्यां लगदा ए...

                    इट-पत्थर दी दीवार इट-पत्थर नूं सहारा देंदी ए  ... समाज वी ते पत्थर दा ए, फ़िर वी

                    ए किसे नूं सहारा नीं देंदा "

                    ( मैं जब भी किसी मकान को बनते देखता हूँ तो कुछ अजीब-सा लगता है ... 

                       ईंट-पत्थर की दीवार ईंट-पत्थर को सहारा देती है...समाज भी तो पत्थर का है, पर यह किसी को सहारा नहीं देता)

 

अ०               " ए बड़ा ई rare होंदा ए कि कोई किसे दा सहारा बण के किसे होर नूं चुक लैंदा ए"

                      (यह बहुत ही rare होता है कि कोई किसी का सहारा बन कर किसी को उठा लेता है)

 

अमृता जी ने अचानक आँख  भींच ली, दायं हाथ की उंगलिओं को जैसे पल भर के लिए मसल दिया और निचले ओंठ को दबा लिया ... जैसे कुछ कहने की कोशिश में हों पर अचानक कह न सकती हों।

मैं भी चुप ...और फिर अमृता जी ने पैनी नज़र से मेरी आँख में देखा कि जैसे मुझको परख रही हों।

 

अ०             " किसे नूं चुकण लई determination, self-confidence ते clarity चाइदि ए"

                   (किसी को उठाने के लिए determination, self-confidence और clarity चाहिए)

 

वि०              " ते शायद faith in God वी ते चाइदा ए न ?"

                    ( और शायद faith in God भी तो चाहिए न ?)

अ०              " ओ self-confidence विच ई आ जांदा ए ... जदों self-confidence होए ते भगवान

                      विच विश्वास करना असान होंदा ए ... कोई बड़े हादसे विचों गया होए ते ओदा

                      confidence low होएगा, ते उनूं भगवान विच विश्वास किदां आएगा !"

                      ( वह self-confidence में ही आ जाता है ... जब self-confidence हो तो भगवान

                         में विश्वास करना आसान होता है ... कोई बड़े हादसे से गुज़रा हो तो उसका

                         confidence low होगा, तब उसको भगवान में विश्वास कैसे आएगा !)

 

अमृता जी कुछ इस तरह समझा कर बात कर रही थीं कि जैसे कोई विद्वान दार्शनिक संदेश दे रहा हो ... और हाँ उनकी यह सोच दार्शनिक ही तो थी।

 

इन बातों से हवा कुछ  भारी-सी हो गई थी, अत: रुख बदलने के लिए अमृता जी ने कुछ हल्की बातों का सहारा लिया ...

 

अ०              " ते हुण electrical engineering degree दे बाद कम किथे शूरू कीता ए?"

                     (अब electrical engineering degree के बाद काम कहाँ शूरू किया है?)

 

मैंने बताया कि अभी तो Central Government की Ministry of Power में हूँ तो उनको कुछ अजीब लगा । कहने लगीं कि private company ज़्यादा अच्छी रहती। मैंने बताया कि मेरा इरादा

एक साल में शिक्षा के लिए यू.एस.ए. जाने का है ... मुंबई और कलकता private companies में interview के लिए गया था ... वह सात साल का bond मांगती थीं .. यह मेरे लिए बहुत लंबा था,

और अभी बड़े भाई एक साल के लिए अमरीका गए हुए थे तो भाभी का, उनके बच्चों का, माता-पिता और नानी जी का ख़्याल भी रखना है ...

 

अ०               " तुसीं किने बाई साल दे हो ते एना सारां दा ख़्याल रखदे ओ !"

                     ( आप सिर्फ़ बाइस साल के हैं और इन सब का ख़्याल रखते हैं !)

 

मुझसे कोई जवाब न बना ... पर अमृता जी के मन में उसी समय कोई गंभीर प्रश्न ज़रूर बना।

कुछ पल मेरी आँखों में देखती रहीं ... कुछ नहीं कहा ... और फिर अचानक  ...

             

अ०                  "इक सवाल पुछां ?"

                      (एक सवाल पूछूं ?) ...

                      

                      (long pause again, and a short sigh)

 

अ०                 " विजय जी, एदां क्यों होंदा ए कि असीं दूजां दे नाल प्यार करदे आं, दूजां नूं   

                        आपणा सब कुज देण नूं तैयार हो जांदे आं, लेकिन असीं आपणे-आप नाल प्यार

                        नईं करदे ?"

 

                        (विजय जी, ऐसा क्यों होता है कि हम दूसरों से प्यार करते हैं, दूसरों को अपना

                          सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन हम अपने-आप से प्यार नहीं करते?)

 

अमृता जी से प्रश्न सुनते ही मैं चकरा-सा गया ... इतना गूढ़ सवाल वह मुझसे पूछ रही हैं ... मैं ...केवल २२ साल का अनुभवहीन ...! पल भर को यह भी सोचा कि वह मेरी परीक्षा ले रहीं हैं क्या।

हाथ में हाथ रख कर, हाथों को मलते, अपनी घबराहट को छुपाते, मैंने कहा ...

 

वि०                   " मैं तो आपसे छोटा हूँ ... आप ... आप मुझसे पूछ रही हैं ?"

 

अ०                    " ऐ छोटे-वडे दी गल छडो ... मैं थुवाडे अंदर वेख रहियाँ कि तुसीं किसे नूं 

                           आपणा सब कुज देंण लई तैयार हो ... ते मैंनूं तां लई डर प्या लगदा ए...

                           .... कि थुवानूं दुख होएगा "

 

                           ( यह छोटे-बड़े की बात छोड़िए ... मैं आपके भीतर देख रही हूँ कि आप किसी

                             को अपना सब कुछ देने को तैयार हैं ... और मुझको इसीलिए डर-सा लग 

                             रहा है ... कि आपको दुख होगा )  

 

वि०                      " आपने वह दुख देखा है न !"

 

अ०                       " एस  लई दुख ने दुख नूं पहचाण लिता ए"

                              (इसीलिए दुख ने दुख को पहचान लिया है)

 

वि०                       " अमृता जी, हुण थुवाडे सवाल दा मेरा जवाब ...

                              एस लई कि जदों साडी ज़िंदगी साडे कोल आपणे लै कुज मंगदी ऐ ते असीं

                              आपणें कन बंद कर लैंदे आं ... ते फ़िर साडी ज़िंदगी साडे कोल ठुकराई दूजां

                              ते ज़्यादा भरोसा करदी ए ...तां लगदा ए कि असीं आपणे नाल प्यार नईं

                              करदे "

 

                             ( अमृता जी, अब आपके सवाल का मेरा जवाब ...

                                इसलिए कि जब हमारी ज़िंदगी हमसे अपने लिए कुछ मांगती है तो हम

                                अपने कान बंद कर लेते हैं ... और फिर हमारी ज़िंदगी हमसे ठुकराई दूसरों

                                पर ज़्यादा निर्भर करना शूरु कर देती है ... तब लगता है कि हम अपने

                                साथ प्यार नहीं करते )

 

अ०                          " हुण वेखो... ताईं ते मैं थुवाडे कोल ऐ सवाल पुछ्या सी ... मैंनूं पता सी कि

                                 तुसीं एदां दा ई जवाब दियोगे"

 

                                ( अब देखो ... तभी तो मैंने आपसे यह सवाल पूछा था ... मुझको पता था

                                  कि आप ऐसा ही कोई जवाब देंगे)

 

इन भारी बातों के बाद चाय पी, कुछ इधर-उधर की हल्की बातें करीं, उनके उपन्यास की, मेरी कविताओं की बातें करीं। ... और फिर मैंने उन्हें याद दिलाया कि पिछली बार उन्होंने कहा था कि अगले मिलन पर वह अपने उपन्यास की पंक्तियां अपने मुँह सुनाएँगी । अत: यह अच्छा अवसर था

उनसे सुनने का ... और उन्होंने सुनाई भी।

 

अपने उपन्यास "एक सवाल" से कुछ पंक्तियां जो उन्होंने सुनाईं ... (हिंदी में अनुवाद...)

 

जगदीप ने अपनी बाहों को रेखा की बाहों के साथ मिला कर कहा,...

 

"रेखा, चारों बाहों का रंग एक है। बताओ तुम्हारी कौन सी और मेरी कौन सी?"

रेखा ने पहले अपनी बाहों को देखा और फिर जगदीप की...और कहा..

"यह मेरी रही नहीं और यह मेरी होने से रहीं"

कह नहीं सकता कि कितना अच्छा लगा अमृता जी के मुंह से यह सुन कर !

...और इसके बाद अपने उपन्यास "अशु" से ...

नीना मेरे एक उपन्यास की पात्र है । पतले-से, सांवले-से, कोमल-से मुख वाली नीना।

एक रात वह मेरे सपने में आई ... सामने खड़ी बस रोती रही। वह रोए जा रही थी और मैं

उसे चुप करा रही थी। फिर वह हिचकियां लेती हुई मेरी बांह हिलाकर मुझसे कहने लगी,

"मेरी उम्र थी यह दुख सहने की ? मेरा चेहरा था इन आँसुओं के लायक ? तुमने मेरी कहानी

ऐसी क्यों बना दी ? ... यह तुमने क्या किया है मेरे साथ ?"  ... यदि ईश्वर भी रात के समय

सोता हो और उसे सपने आते हों तो मैं भी एक बार नीना की तरह उसके पास जाकर उसकी

बांह हिलाऊं और उससे यही सवाल पूछूं जो नीना ने मुझसे पूछे थे।

इतनी बातों में पता ही नहीं चला कि कब शाम हो गई थी, कब और कैसे साड़े-छे बज गए थे ...

एक बार फिर मिलने की बात करके, झुककर नमस्ते करी, और मैं घर की ओर चला ... घर

आने को मन नहीं कर रहा था तो रास्ते में हमायूं के मकबरे के मैदान में बैठ कर लगभग

एक घंटा बिता दिया ... उस स्वर्णिम शाम के बारे में सोचते-सोचते जो भगवान ने मेरी झोली में

पारितोषिक के समान दी थी।

 

अब ३१ अक्तूबर पुन: आने वाला है, और न जाने मुझको कुछ डर-सा लगने लगा है ... कुछ वैसे ही

जैसे अमृता जी को मेरे लिए डर था ... जब उन्होंने उसी शाम मुझसे कहा था ...

 

"यह छोटे-बड़े की बात छोड़िए ... मैं आपके भीतर देख रही हूँ कि आप किसी

 को अपना सब कुछ देने को तैयार हैं ... और मुझको इसीलिए डर-सा लग 

 रहा है ... कि आपको दुख होगा"

" अमृता जी, मेरा हाथ पकड़ लो, please, आज मुझे बहुत, बहुत दुख हो रहा है ! " 

-- विजय निकोर                                                                                                             

६ अक्तूबर, २०१३

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 1356

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on October 23, 2013 at 7:16am

 

//संस्मरण तो बहुत पढ़े लेकिन किसी संस्मरण को पढ़कर जैसी अनुभूति आज हो रही है बैसी पहले कभी नहीं हुई ...//

आपकी सराहना मन को आनंदानुभूति से स्पंदित कर गई। बहुत आभार, आदरणीय  डा० मिश्र जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 21, 2013 at 3:28pm

आदरणीय विजय सर ...संस्मरण तो बहुत पढ़े लेकिन किसी संस्मरण को पढ़कर जैसी अनुभूति आज हो रही है बैसी पहले कभी नहीं हुई ...ऐसा लगा जैसे हम भी आपके बगल में खड़े होकर मूक दर्शक और श्रोता की तरह ही संवादों का हिस्सा रहे हों ..अमृता जी जैसी शक्शियत के हूबहू शब्दों की पुनरावृत्ति ने एक मनोरम दृश्य सा बना दिया ...आपकी इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई ..सादर प्रणाम के साथ

Comment by vijay nikore on October 19, 2013 at 4:52pm

दीप्ति नवल जी की यही पुस्तक मैंने बहुत ढूँढी, पर नही मिली। यदि आपको कभी एक प्रति मिल सके

तो मेरे लिए ले लें  ... आपका बहुत आभारी हूँगा।

 

धन्यवाद, आदरणीय शरदिंदु जी।

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on October 19, 2013 at 4:42pm

आदरणीय, दीप्ति नवल जी की जो पंक्तियाँ मैंने उद्धृत की हैं वे उनकी पुस्तक " लम्हा - लम्हा " से हैं. कई साल पहले मुझे यह पुस्तक यहीं लखनऊ में मिल गयी थी. मैं पता करूंगा यदि उनकी कोई भी हिंदी कविता की पुस्तक उपलब्ध हो तो आपको भेज दूंगा. मुझे खुशी होगी. सादर, शरदिंदु

Comment by vijay nikore on October 19, 2013 at 12:28pm

//अ...हा...हा. आपने मुझे अमृता जी के सामने ला खड़ा किया आदरणीय... संवेदनशील पाठक आपके आभारी रहेंगे //

 

आदरणीय शरदिंदु जी, आपसे इतना मान मिलना मेरा सौभाग्य है । आपका हार्दिक आभार।

 

दीप्ति नवल जी की English poems की पुस्तक मुझको on-line मिल गई थी, परन्तु उनकी हिन्दी काव्य-पुस्तक

नहीं मिली, बहुत कोशिश की । क्या बता सकते हैं कि कहाँ मिल सकती है ?

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on October 19, 2013 at 12:17pm

 

 यह संस्मर्ण आपको अच्छा लगा, यह मेरे लिए हर्ष की बात है, आदरणीय आशीष जी, धन्यवाद।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on October 19, 2013 at 2:38am

अ...हा...हा. आपने मुझे अमृता जी के सामने ला खड़ा किया आदरणीय. कवयित्री दीप्ति नवल की पंक्तियाँ फिर दोहरा रहा हूँ "जब बहुत कुछ कहने को मन करता है न, तब कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता". अद्भुत भावनाएँ ज्वार-भाटे की तरह सराबोर कर गयीं. संवेदनशील पाठक आपके आभारी रहेंगे.

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on October 18, 2013 at 8:10pm

अद्भुत संस्मरण !
इस संस्मरण को हम सभी के साथ बाँटने हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय ।

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:47pm

 

//यें पक्तियां भाउक कर गयीं आदरणीय, आप किसी के लिए समर्पित रहते हैं और अगला आपके समर्पण पर ही प्रश्न खड़ा कर देता है फिर आप कुछ नहीं कहते, और आपका कुछ नहीं कहना आपकी कमजोरी समझी जाती हैं//

आपने इन शब्दों में जैसे मेरे जीवन का सार कह दिया है ..

आपका हार्दिक आभार ... समझने के लिए और संस्मरण की सराहना के लिए,आदरणीय "बागी" जी।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by vijay nikore on October 17, 2013 at 12:42pm

//संस्मरण रोचक है. प्रस्तुतीकरण सार्थक है.//

आपसे मिली सराहना से और इन शब्दों से मनोबल बढ़ा...आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सौरभ जी।

 

सादर,

विजय निकोर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
21 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 167 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है ।इस बार का…See More
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Apr 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Apr 29
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Apr 28
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Apr 28
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service