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ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

जुड़ो जमीं से कहते थे जो, वो खुद नभ के दास हो गये

आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

 

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय

आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

 

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी

जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

 

बात शुरू की थी अच्छे से सबने खूब सराहा भी था

लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये

 

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो

नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये

 

शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में

कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:44pm

आदरणीय Saurabh जी, क्या कहूँ। बस आपकी टिप्पणी बार बार पढ़ रहा हूँ। बहुत बहुत शुक्रिया। स्नेह बना रहे

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:43pm

वीनस जी, इस कदर तारीफ़ के लिए तो शुक्रिया अदा करने को शब्द नहीं मिलेंगे। तह-ए-दिल से आभारी हूँ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:42pm

बहुत बहुत शुक्रिया rajesh kumari जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:39pm

बहुत बहुत धन्यवाद Dr.Prachi Singh जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:38pm

बहुत बहुत शुक्रिया विजय मिश्र जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:38pm

बहुत बहुत धन्यवाद अरुन शर्मा 'अनन्त' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:35pm

बहुत बहुत धन्यवाद SANDEEP KUMAR PATEL जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:34pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जितेन्द्र 'गीत' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:33pm

बहुत बहुत धन्यवाद Neeraj Kumar 'Neer' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:28pm

बहुत बहुत धन्यवाद गिरिराज भंडारी जी

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