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अपनों को खोके बहुत रोता है आदमी,

यादों के जब बोझ को  ढोता है आदमी.

रिश्ते जो हो न सके कामयाब सफ़र में

उन्हीं को करके याद दामन भिगोता है आदमी

 

पहले काटता है पेड़,  जलाता है जंगलात ,

एक टुकड़ा छांव को फिर रोता है आदमी .

 

बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय,

पाता वही वही है जो बोता है आदमी ..

......... नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Neeraj Neer on September 16, 2013 at 8:21pm

आदरणीय बृजेश जी शुक्रिया 

Comment by Neeraj Neer on September 16, 2013 at 8:21pm

aआदरणीय अरुण है हार्दिक आभार.

Comment by बृजेश नीरज on September 16, 2013 at 6:47pm

बहुत ही अच्छा प्रयास है आपका. आपको हार्दिक बधाई!

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 15, 2013 at 3:55pm

आदरणीय नीरज भाई जी बेहद अच्छा प्रयास है रचना थोड़ी समय की मांग करती दीख रही है, खैर प्रयास पर बधाई स्वीकारें.

Comment by Abhinav Arun on September 15, 2013 at 1:09pm

सच्चे भावों से परिपूर्ण इस कविता के लिए शुभकामनायें नीरज जी !

Comment by Neeraj Neer on September 15, 2013 at 11:08am

आदरणीय जीतेंद्र गीत जी हार्दिक आभार  

Comment by Neeraj Neer on September 15, 2013 at 11:06am

आअदर्निय अन्नपूर्णा जी हार्दिक आभार 

Comment by Neeraj Neer on September 15, 2013 at 11:06am

आदरणीय इ. गणेश बागी जी , ह्रदय से आभार आपका . यह रचना ग़ज़ल नहीं है इसे छंदमुक्त नई कविता मान कर पढ़ा जाए . दरअसल मेरी दिल्ली इच्छा है कि मैं बाबह्र ग़ज़ल लिखूं , इस ग्रुप में आकर सीखने की कोशिश भी कर रहा हूँ , परन्तु सत्य यही है कि किताबें पढ़कर कोई कविता नहीं सीख सकता मेरी सारी कोशिश बेकार हो जाती है , कोई गुरु मिले तो शायद ज्ञान मिले , तब तक प्रयास फिर भी करता रहूँगा. प्रयास को सराहने के लिए धन्यवाद.

Comment by Neeraj Neer on September 15, 2013 at 10:59am

आदरणीय  गिरिराज भंडारी जी हार्दिक आभार

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 15, 2013 at 12:53am

पहले काटता है पेड़,  जलाता है जंगलात ,

एक टुकड़ा छांव को फिर रोता है आदमी ........सच कहा

बहुत ही सटीक व् संदेशप्रद रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीय नीरज जी.

 

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