२१२२ २१२२ १२
बूँद जो थी अब नदी हो गयी
दिल्लगी दिल की लगी हो गयी
जिंदगी का अर्थ बस दर्द था
तुम मिले आसूदगी हो गयी
आ गया जो मौसमे गुल इधर
शाख सूखी थी हरी हो गयी
बिन तुम्हारे एक पल यूँ लगा
जैसे पूरी इक सदी हो गयी
जिंदगी गुलपैरहन सी हुई
आप से जो दोस्ती हो गयी
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Neeraj Neer on July 1, 2018 at 6:32pm — 7 Comments
2122 2122 2122 212
दूरियां नजदीकियां बन तो गयी हैं आजकल
पास रहते लोग से हम दूर कितने हो गए
माँ पिता सारे मरासिम गुम हुए इस दौर में
रोटियों के फेर में मजबूर कितने हो गए
भूल जाओगे मुझे तुम एक दिन मालूम था
इश्क में मेरे मगर मशहूर कितने हो गए
पत्थरों पर सर पटककर फायदा कोई नहीं
उसके दर पर ख्वाब चकनाचूर कितने हो गए
रात काली नागिनों सी डस रही है आजकल
हमनशीं थे कल तलक मगरूर…
ContinueAdded by Neeraj Neer on June 24, 2018 at 11:35am — 20 Comments
१२२ १ २२ १२२ १२
समंदर मिलेगा नदी तो बनो
मिलेगा खुदा आदमी तो बनो
अँधेरा मिटेगा अभी के अभी
जलो तुम जरा रौशनी तो बनो
तुम्हें भी मिलेगी ख़ुशी एक दिन
कभी तुम किसी की ख़ुशी तो बनो
करो गर मुहब्बत तो ऐसे करो
किसी की कभी जिंदगी तो बनो
जो भी चाहिए दूसरों से तुम्हें
खुदा के लिए तुम वही तो बनो
नीरज कुमार नीर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by Neeraj Neer on July 8, 2017 at 3:34pm — 5 Comments
1222 1222 1222 1222
नजर से दूर रहकर भी जो दिल के पास रहती है
कभी नींदें चुराती है कभी ख्वाबों में मिलती है.
चमकना चाँद सा उसका मेरी हर बात पर हँसना
कहीं फूलों की नगरी में कोई वीणा सी बजती है.
ये भोलापन हमारा है कि है जादूगरी उसकी
वफ़ा फितरत नहीं जिसकी वही दिलदार लगती है.
कभी मैं भूल जाऊँगा उसे कह तो दिया लेकिन
जो दिल पर हाथ रक्खा तो वही धड़कन सी लगती है.
तुम्हारा जो बचा था पास मेरे ले लिया तुमने…
ContinueAdded by Neeraj Neer on May 6, 2017 at 7:55am — 19 Comments
शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं
जंगल के भीतर
और जंगली बंदर निकल आए हैं
जंगल से शहर में, बस्तियों में....
बंदरों को अब नहीं भाते
जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल
उनके जी चढ़ गया है
चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद
आदमियों के हाथों से,
दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं
वे अपने पसंदीदा व्यंजन
इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले
शर्मीले बंदर
अब किटकिटाते हैं दाँत
कभी कभी गड़ा भी देते हैं
भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से…
Added by Neeraj Neer on February 4, 2016 at 10:24pm — 14 Comments
एक कुआं था
बहुत बड़ा कुआं
शीतल जल से पूर्ण
वहाँ रहते थे अनेकों मेढक
कुएं के मालिक ने कुएं में
डाल दिये कुछेक साँप
एवं फूंका मंत्र
जिससे उस कुएं में कायम हो गया लोकतन्त्र
एक मोटा मेढक बना उसका प्रधान
उसने कराया कुएं में सर्वे
और पाया कि साँपों की संख्या वहाँ है कम
मोटा मेढक और उसके चमचे हुए बहुत हैरान
उन्होने बनाया एक नियम
जिससे हो सके साँपो का उत्थान
सभी साँपो को मिले एक मेढक खाने को रोज
ऐसा हुआ प्रावधान
कहा गया बहुत…
Added by Neeraj Neer on January 20, 2016 at 8:13pm — 10 Comments
उसे कुछ दिखाई नहीं देता
सिवा
अपने आप के
अपनी आँखों के सामने
उसने रखा है
आईना
वह रहता है आत्ममुग्ध
समझता है स्वयं को ही
सबसे सुंदर
सर्वश्रेष्ठ
उसने देखा नहीं है
कोई और चेहरा
उसे कुछ सुनाई भी नहीं देता
बंद कर रखे हैं
उसने अपने कान
वह सुनता है
सिर्फ अपने आप को ही
गूँजती है उसके कान में
अपनी ही आवाज
मानता है अपनी बात को ही
एक मात्र सत्य
चाहता है समूची दुनियाँ को
बनाना अपने जैसा
आँखों…
Added by Neeraj Neer on December 28, 2015 at 8:34pm — 3 Comments
2122 2122 2122 22/112
शाम लिख ले सुबह लिख ले ज़िंदगानी लिख ले
नाम अपने हुस्न के मेरी जवानी लिख ले।
कब्ल तोहमत बेवफ़ाई की लगाने से सुन
नाम मेरा है वफा की तर्जुमानी लिख ले ।
जो बनाना चाहता है खुशनुमा संसार को
अपने होंठो पे मसर्रत की कहानी लिख ले।
मंहगाई बढ़ रही है रात औ दिन चौगुनी
वादे अच्छे दिन के निकले लंतरानी लिख ले।
लाल होगी यह जमी गर इन्सानो के खूँ से
रह न जाएगा अंबर भी आसमानी लिख ले…
Added by Neeraj Neer on December 15, 2015 at 10:46pm — 16 Comments
तुम सोचते हो जो नहीं हूँ मैं
जो कुछ भी मैं हूँ वो यही हूँ मैं।
दुश्वारियाँ करती नहीं व्याकुल
आता है जीना जिंदगी हूँ मैं।
जो सोचना है सोचिए साहब
मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं।
साहिल से यारी मैं करूँ कैसे
जाना है आगे इक नदी हूँ मैं।
अच्छा किसे लगता भला जलना
पर क्या करूँ कि रोशनी हूँ मैं ।
नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on October 28, 2015 at 11:08pm — 12 Comments
अंबर से मेघ नहीं बरसे
अब आँखों से ही बरसेंगे
शोक है
मनी नहीं खुशियाँ
गाँव में इस बार
दशहरा पर
असमय गर्भ पात हुआ है
गिरा है गर्भ
धान्य का धरा पर
कृषक के समक्ष
संकट विशाल है
पड़ा फिर से अकाल है
खाने के एक निवाले को
रमुआ के बच्चे तरसेंगे
व्यवस्था बहुत बीमार है
अकाल सरकारी त्योहार है
कमाने का खूब है
अवसर
बटेगी राहत की रेवड़ी
खा जाएँगे नेता,…
ContinueAdded by Neeraj Neer on October 26, 2015 at 2:51pm — 11 Comments
तेजी से घूम रहे चक्र पर
हम ठेल दिये गए हैं
किनारों की ओर
जहां
महसूस होती है सर्वाधिक
इसकी गति
ऊंची उठती है उर्मियाँ
जैसे जैसे हम बढ़ते हैं
केंद्र की ओर
सायास
स्थिरता बढ़ती जाती है
प्रशांत हो जाती है तरंगे
सत्य का बोध
अनावृत होने लगता है
अनुभव होता है एकात्म का ....
.............. नीरज कुमार नीर
Added by Neeraj Neer on September 26, 2015 at 12:37pm — 5 Comments
भारत के अंबर पर देखो
सूर्य सी हिन्दी चमक रही है
माँ भारती के उपत्यका में
खुशबू बनकर महक रही है
विभिन्न प्रांतों का सेतुबंधन
सरल सर्वजन सर्वप्रिय है
दक्षिण से उत्तर पूर्व पश्चिम
दम दम दम दम दमक रही है
संस्कारों की वाहक हिन्दी
सभी भाषाओं में यह गंगा
प्रगति पथ पर नित आरूढ़ ये
पग नवल सोपान धर रही है
यूरोप अमेरिका ने माना
है यह भाषा समर्थ सक्षम
हम भारतियों के दिल में…
ContinueAdded by Neeraj Neer on September 14, 2015 at 7:59am — 6 Comments
सोनाली भट्टाचार्य एवं सभी तेजाब पीड़ितों के लिए
वह एक लड़की थी
उन्नत नितंबों
पुष्ट उरोजों वाली
श्यामल घनेरे केश
बल खाते पर्वतों के बीच
लहराते
लगता बाढ़ की पगलाई नदी
मेघों के मध्य
घाटी में से गुजर रही हो
खुलकर खिलखिला कर हँसती
कई सितार एक साथ झंकृत हो उठते
उसके सपनों में आता
फिल्मी राजकुमार
जिसके साथ वह
गीत गाती झूमती नाचती
फूलों के बाग में
स्कूल कॉलेज से आती जाती
सबकी निगाहों की केंद्र बिन्दु
सबके…
Added by Neeraj Neer on September 13, 2015 at 5:17pm — 12 Comments
तुम गोलाई में तलाशते हो कोण
सीधी सरल रेखा को बदल देते हो
त्रिकोण में
हर बात में तुम तलाशते हो
अपना ही एक कोण
तुम्हें सुविधा होती है
एक कोण पकड़कर
अपनी बात कहने में
बिन कोण के तुम
भीड़ के भंवर में
उतरना नहीं चाहते
तुम्हें या तो तैरना नहीं आता
या तुम आलसी हो
स्वार्थी और सुविधा भोगी भी
तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है
इस इस देश में गढ़ डाले है
तुमने हजारो लाखों कोण
हर कोण से तुम दागते हो तीर
ह्रदय को…
Added by Neeraj Neer on August 29, 2015 at 11:14am — 12 Comments
लड़कियाँ होती अगर
उड़हूल के फूलों की तरह
और तोड़ ली जाती
बिन खिले
अधखिले
खिल जाती फिर भी
समय के साथ
पर लड़कियाँ तो होती हैं
गुलाब की तरह
नीरज कुमार नीर /
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on August 2, 2015 at 11:15am — 13 Comments
खोल रखे है मैंने
खिड़कियाँ और सभी दरवाजे
भीतर आते हैं
धूप , चाँदनी ,
निशांत समीर ,
दोपहर के गरम थपेड़े ,
पूस की शीत लहर ,
बरखा बूंदे
तमस, प्रकाश
पुष्प सुवास, उमसाती गँधाती अपराह्न की हवा
और सभी कुछ
अपनी मर्जी से
और अक्सर उतर आता है
खाली आकाश भी
बस तुम नहीं आती
कितने बरस बीत गए
पर तुम नहीं आती
खोल रखे होंगे
तुमने भी शायद
खिड़कियाँ और दरवाजे
..... नीरज कुमार…
ContinueAdded by Neeraj Neer on August 2, 2015 at 8:59am — 12 Comments
बहुत सोचा तो लगा
सच ही तो कहते हैं
वे तो भर्ती होते हैं मरने के लिए
अवगत होते हैं
अपने कार्य के निहित खतरों से
पर एक बात समझ नहीं आयी
जब सामने से चलती हैं गोलियां
उनके पास भी तो होता है
भाग खड़े होने का विकल्प
पर वे भागते क्यों नहीं
देते हैं गोलियों का जवाब
पीघला देते हैं लोहे को
अपने सीने में कैद करके
बारूद को कर देते हैं बर्फ
वे धोखा नहीं दे पाते
अपनी मातृभूमि को
राजनेताओं की तरह
मेरी समझ में कुछ कमी है शायद…
Added by Neeraj Neer on July 18, 2015 at 8:18pm — 6 Comments
एक नदी पर एक पुल था , जिसमे सात पाये थे। एक बार सबसे बीच वाले पाए ने सबसे किनारे वाले पाए से कहा “जानते हो यह पुल मेरी वजह से ही है। नदी की जलधारा का सबसे ज्यादा प्रवाह मैं ही झेलता हूँ। मैं हमेशा पानी में डूबा रहता हूँ, तुमलोगों का क्या किनारे खड़े रहते हो, बरसात में कभी कभी नदी की जलधारा तुम तक पहुँचती है वरना सालो भर ऐसे ही खड़े रहते हो, तुम्हारी उपयोगिता ही क्या है। मेरे कारण ही लाखों लोग इस पुल का प्रयोग कर नदी के आर पार जा पाते हैं । “
किनारे वाले पाये ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ…
Added by Neeraj Neer on July 5, 2015 at 3:00pm — 12 Comments
“मेरे ग्रैंड फादर राय बहादुर थे” ..... उस व्यक्ति ने बुद्धिजीवियों की सभा में अकड़ के साथ यह बात कही । सभा के आयोजक ने भी गर्व से अपना सर ऊंचा कर लिया । वहाँ उपस्थित लोग जो उस व्यक्ति को मिल रहे विशेष सम्मान, तवज्जो , उसके समृद्ध पहनावे एवं उसकी मंहगी गाड़ी से पहले ही नतमस्तक हो रहे थे, यह सुनकर थोड़े और विनीत भाव दिखलाने लगे। उसे मंच पर सबसे ऊंची कुर्सी दी गयी । सब उसके साथ एक फोटो खिचवा लेना चाहते थे । महेश सभा में सबसे पीछे की कुर्सी पर उपेक्षित सा बैठा अपने मलिन कपड़ों को देख रहा था। वह…
ContinueAdded by Neeraj Neer on June 28, 2015 at 6:25pm — 22 Comments
रात रानी क्यों नहीं खिलती हो तुम
भरी दुपहरी में
जब किसान बोता है
मिट्टी में स्वेद बूंद और
धरा ठहरती है उम्मीद से
जब श्रमिक बोझ उठाये
एक होता है
ईट और गारों के साथ
शहर की अंधी गलियों में
जहां हवा भी भूल जाती है रास्ता ।
तुम्हारी ताजा महक
भर सकती है उनमें उमंग
मिटा सकती है उनकी थकान
दे सकती है उत्साह के कुछ पल
कड़ी धूप का अहसास कम हो सकता है ।
पर तुम महकते हो रात में
जब किसान और श्रमिक
अंधेरे की चादर ओढ़े…
Added by Neeraj Neer on June 20, 2015 at 8:11pm — 8 Comments
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