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काल के चूल्हे पर

काठ की हांडी

चढ़ाते हो बार बार .

हर बार नयी हांडी

पहचानते नहीं काल चिन्ह को

सीखते नहीं अतीत से .

दिवस के अवसान पर

खो जाते हो

तमस के आवरण के भीतर

रास रंग और श्रृंगार में .

आँखों पर चढ़ा लिया

झूठ और ढकोसले का चश्मा.

अपनी कायरता को प्रगतिशीलता का नाम दे दिया.

तुम्हे साफ़ दिखाई नहीं देता.

तुम सच देखना भी नहीं चाहते .

क्षणिक स्वार्थों ने तुम्हे अँधा कर दिया.

पर याद रखना

निरपेक्षता , निष्क्रियता से बड़ा अपराध है .

हिजड़ों का भी एक अपना पक्ष होता है ..

…………. नीरज ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित ..

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on August 31, 2013 at 11:48am

आदरणीय राजेश कुमारी जी हार्दिक आभार.. 

Comment by Neeraj Neer on August 31, 2013 at 11:47am

आ . गिरिराज भंडारी जी बहुत आभार .. 

Comment by Neeraj Neer on August 31, 2013 at 11:47am

आदरणीय अन्नपूर्णा बाजपाई जी बहुत आभार आपका


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 31, 2013 at 11:42am

प्रगतिशीलता के आवरण में छुपी एक कटु सच्चाई पर बहुत सामयिक सटीक व्यंग्य करती हुई प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई नीरज कुमार जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 31, 2013 at 10:56am

वाह नीरज भाई , क्या बात कही !!

निरपेक्षता , निष्क्रियता से बड़ा अपराध है .

हिजड़ों का भी एक अपना पक्ष होता है ..----------------- वाह वाह !!

Comment by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 10:55am
आदरणीय नीरज शर्मा जी बहुत ही सुंदर भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई । सच है ..........

पचानते नहीं काल को
सीखते नहीं अतीत से ......... बढ़िया पंक्तियाँ

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